प्राचीन काल में भारत का दक्षिण पूर्व एशिया के साथ व्यापार
डॉ. धर्मचन्द चौबे
(वर्ष 13, अंक 1-2) चैत्र-आषाढ़ मास कलियुगाब्द 5122 अप्रैल-जुलाई 2020
शोध सारांश
प्रारम्भ में भारत के दक्षिण-पूर्व में हिन्द महासागर और प्रशान्त महासागर की जलसंधि रेखा पर स्थित जावा, सुमात्रा, मलयद्वीप, चम्पा और श्याम देश से सम्पर्क स्थल मार्ग से हुआ था। भारत के व्यापारी एवं धर्माधिकारी आसाम होकर वर्मा तक जाते थे और वहां से चीन से सुमात्रा की ओर जाने वाले द्वितीय रेशम महामार्ग (Silk Route) से होकर इन स्वर्ण द्वीपों की ओर जाते थे। कुछ व्यापारी ताम्रलिपि (तामलुक) से वर्मा ओर फिर थाई भूमि होकर सुमात्रा (इंडोनेशिया) और जावा तक जाते थे। किन्तु नर्मदा नदी और विन्ध्य पर्वत के दक्षिण भारत के लोग और व्यापारी आसाम व वर्मा की बजाय सीधे कोरोमंडल तट से समुद्र के अन्दर उतर कर अपने महान पौरुष से महा जलपोतों के द्वारा इन दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों पर उतरने लगे और 6वीं शताब्दी तक तमिल से लेकर बंगाल तक के बन्दरगाहों से होकर अपरिमित लोग और अपरिमित वस्तुएं इन द्वीप समूहों की ओर यात्रा करने लगे। भारत से धर्म, अध्यात्म, वास्तुकला और भाषा-साहित्य इन द्वीपों की ओर गए और वहां से गरम मशाले, दाल, चन्दन, अगरू, काली मिर्च, हाथी दान्त और भारी मात्रा में स्वर्ण भारत की ओर आए। इस प्रकार से हम देखते हैं कि भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भारतीयों ने एकात्मता स्थापित कर बृहत्तर भारत का निर्माण किया।
संकेत शब्द : दक्षिण-पूर्व, मालय देश, जावा, सुमात्रा, श्याम देश, बोर्निया, चम्पा, थाई भूमि, चन्दन, स्वर्ण खोह, (Golden Kherosonese), स्वर्ण द्वीप, यव द्वीव, ताम्र द्वीप, कन्याकुमारी, पोतातन्तरण, ऑस्ट्रेमेशियन, रेशम महामार्ग, को-खो खाओ, ताकुआ या, कौसमश, टॉलेमी, अन्तर-प्रायद्वीप, मानक्का, थंग टुक, सिन्दुस, आरोंथा, कल्याण, चोल मानसून, डांग सोन, गमदन्त, हरिताश्म, गोमेद, लाभ पत्थर।
प्रस्तावना
प्राचीन भारत और दक्षिणी पूर्वी एशिया के बीच जो सांस्कृतिक और राजनीतिक सम्बन्ध, व्यापारिक सम्बन्धों के माध्यम से विकसित हुआ था, उसे ऐतिहासिक दस्तावेजों ओैर अभिलेखों में देखा जा सकता है। बौद्ध जातकों, रामायण, महाभारत, पुराणों आदि में सुवर्ण भूमि, सुवर्ण द्वीप, यवद्वीप, ताम्रद्वीप आदि के साथ भारत के व्यापार का उल्लेख किया गया है। तमिल कविताओं में बरूकछा, रोवुरा, कावीरीपट्टिनम इत्यादि जैसे बन्दरगाहों का उल्लेख किया गया है।1
यूरोपीय प्रभाव के दौरान, भारतीयों को पश्चिम में अरब और रोम के व्यापारियों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा था, लेकिन पूर्वी क्षेत्र वास्तव में उनके लिए खुला हुआ था। पहली शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्ध में, समुद्र में साहस दिखाने की भावना का लाभ भारत को दक्षिण पूर्व एशिया में पूरा-पूरा मिला था। इंडोनेशिया, भारत, चीन और मलाया द्वीप समूह में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक विन्यास का निर्माण हुआ। गुप्त युग के दौरान, तमिल और ताम्रलिपति के बीच एक नियमित व्यापारिक सम्बन्ध था और यहां से व्यापारिक जहाज लंका, इंडोनेशिया और चीन तक जाते थे।2 छठी शताब्दी ईस्वी के तीसरे दशक के दौरान, पूर्वी तट को जोड़ने वाला एक अन्तर्तटीय मार्ग विकसित हुआ जो भारत के साथ लंका, इंडोनेशिया तथा चीन को जोड़ता था। 8वीं शताब्दी ईस्वी के बाद से भारत का व्यापार दक्षिण पूर्व एशिया के साथ थोड़ा कम हुआ क्योंकि भारत में क्षेत्रीय राज्यों ने विदेशी व्यापार पर ध्यान नहीं दिया परन्तु पहले की धारणा अब अमान्य हो गई है क्योंकि चीन के टांग वंश और भारत के बीच जो सतत् सम्बन्ध था वह दक्षिण पूर्व एशिया होकर ही जाता था।3
गुप्तकाल से पहले और बाद के उल्लेख बताते हैं कि दक्षिण पूर्व एशिया से भारत के गहरे सम्बन्ध थे। जातकों और अन्य बौद्ध ग्रंथों तथा रामायण, महाभारत, पुराण, कथासरितसागर, पतंजलि के महाभाष्य आदि में सुवर्णभूमि, सुवर्णद्वीप, जवद्वीप, ताम्रद्वीप आदि के साथ व्यापार का उल्लेख है। प्राचीन तमिल काव्यं बरूकछा, रोवुरा, कावेरीपट्टनम चोलों की राजधानी, चंपा जैसे प्राचीन बन्दरगाहों के नामों का उल्लेख करते हैं।4
विदेशी व्यापार के विकास में बौद्ध धर्म एक महत्त्वपूर्ण कारक रहा था। भारत के साथ व्यापार सम्बन्ध पूर्वी एशिया के साथ भी इस अवधि के दौरान अबाध गति से चल रहा था। बौद्ध धर्म, मुख्य रूप से अपने महायान रूप में, भारतीय संस्कृति और परम्परा के कई पहलुओं के साथ, समुद्र के बाहर की भूमि पर साहसी भिक्षुओं द्वारा प्रचारित किया गया था और यह बेहद महत्वपूर्ण है कि इस सम्पर्क के शुरूआती भौतिक सबूत दक्षिण-पूर्व एशिया में निर्मित बौद्ध चित्रकला और शिल्प में मिलते है। इस सम्पर्क के साक्ष्य भारत में अमरावती की रेलिंग्स में पाए गए हैं। थाईलैण्ड, कंपूचिया, सुमात्रा और जावा के शिल्पांकन में भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के व्यापार का दिग्दर्शन होता है।5
भारतीय व्यापारियों को पश्चिम में शक्तिशाली अरब और रोमन व्यापारियों से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता था किन्तु वे पूर्व में ऐसी बाधाओं से मुक्त थे। चीनी लेखकों ने उल्लेख किया है कि पहली शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्ध में चोल बन्दरगाहों से निकलने वाले बहुत बड़े जहाजों ने मलाया में भारतीय व्यापारियों की यात्रा दर्ज की थी और कम्बोडिया के तीसरी शताब्दी ईस्वी के स्त्रोत बताते हैं कि तकोला, तामालिन, जावाद्वीप, सुवर्णद्वीप और सुवर्णभूमि भारतीय व्यापारियों के नियमित वार्षिक भ्रमण के व्यापारिक परिपथ पर स्थित थे।6 टॉलेमी ने उल्लेख किया है कि भारतीय व्यापारियों द्वारा भ्रमण किये गए स्थानों में गोल्डन ट्रेझर (मलाया प्रायद्वीय), जौ का द्वीप और बहुत सोने और चांदी का उत्पादन करने वाले स्थान शामिल थे।7 समकालीन और बाद के ग्रीक, भारतीय और अरब लेखन ने प्रमाणित किया कि यह मुख्य रूप से सोने की खोज थी जिसने भारतीय व्यापारियों को समुद्र भर में भारत-चीन और इंडोनेशिया के लिए साहसिक यात्रा करने को प्रेरित किया।8
समुद्री साहसिक भावना से भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में व्यापार करने का दायरा बढ़ा। भारत में बंगाल की खाड़ी से चीन और मलाया द्वीपसमूह की ओर व्यापार निकल पड़ा। गंगा के मुहाने से भारत के पूर्वी तट पर स्थित केप कोमोरिन (कन्याकुमारी) और अन्य बन्दरगाह जुड़े हुए थे।9 इनमें से कुछ बन्दरगाहों का उल्लेख मशहूर पुस्तक ‘‘पेरीप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी’’ में किया गया है। लेखक कुछ पूर्वी देशों को क्रिस यानि सुनहरी भूमि के रूप में संदर्भित करता है। इस पुस्तक के विवरण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां से एक तटीय यात्रा बंगाल के क्षेत्रों में की जा रही थी। दूसरी शताब्दी ईस्वी में लिखे गये टॉलेमी के ग्रन्थ को पूर्वी भारत के महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्रों का नाम पता था। मलाया प्रायद्वीय, जावा के द्वीप और सुमात्रा द्वीप से गुप्तोत्तर काल में ऐतिहासिक सम्बन्ध गहरे हो गए। बौद्ध ग्रंथ इस अवधि के बारे में लिखते है, और व्यापार केन्द्रों की एक लम्बी सूची देते हैं। सुदूर दक्षिण-पूर्व एशिया के नगरों के नाम ज्यादातर संस्कृत भाषा में है। इस प्रकार, दूसरी शताब्दी ईस्वी के बाद से भारतीयों ने इस क्षेत्र के साथ महत्वपूर्ण व्यापार सम्बन्ध विकसित किए थे। हम टॉलेमी के उल्लेख में पाते हैं कि पूर्वी समुद्र में पोलुरा (उड़ीसा के गंजेम जिले के पास) से दक्षिण पूर्व एशिया के लिए सीधा व्यापार मार्ग था जो मलाया प्रायद्वीय तक जाता था।
भारत के आसपास प्राचीन समुद्री मार्ग
भारत के पश्चिमी तट पर प्राचीन समुद्री मार्ग आमतौर पर सिंधु घाटी या मध्य प्रदेश के नीचे की नदी से शुरू होती हुई पोतांतरण के साथ ऐतिहासिक भरूच (भरुकच्छ) होते हुए वहां से, आज के ईरान के असत्कारशील तट को पीछे छोड़ कर पार करते हुए फिर हधरमौत के पास दो मार्ग धाराओं में विभक्त होती हुई, उत्तर में अदन की खाड़ी में और फिर लेवेंट में तत्पश्चात् दक्षिण में लाल सागर के माध्यम से अलेक्जेंड्रिया तक जाता था।10
प्रत्येक प्रमुख मार्ग पोतों के माल स्थानानान्तरण और पशुओं के द्वारा संचालित कारवां से भरा हुआ होता था। मरुस्थलीय भूभाग के माध्यम से यात्रा डाकुओं के जोखिम और स्थानीय लोगों द्वारा पथकर लूटने के कारण से व्यापारी हमेशा सशंक्ति रहते थे और समुद्र तक सकुशल माल पहुंचाना एक कठिन काम था। ग्रीको-रोमन स्रोत कहते है कि भारी वस्तुओं से लदे हुए विशाल जहाज पूर्व में संभवतया मलाया द्वीप समूह से पश्चिमी बन्दरगाहों तक आते थे, जो निश्चित तौर पर भारतीय नहीं थे।11 इसका तात्पर्य है कि भारतीय व्यापारियों के अलावा ऑस्ट्रोनेशियन लोग हिन्द और भू-मध्य सागर के मध्य व्यापार में संलग्न थे। ये लोग भारत और मलाया द्वीप समूह के मध्य व्यापार कर रहे थे।
प्राचीन स्रोतों से हमें जो कुछ भी जानकारी प्राप्त होती है, वह यह है कि सुदूर पूर्व के लिए प्रस्थान का सामान्य स्थल कलिंग राज्य में पलाउरा बंदरगाह था, जो बंगाल की खाड़ी के तट पर मध्य-पूर्वी भारत में स्थित था और जो अन्तर्राष्ट्रीय-व्यापार से जुड़ा हुआ था। तथापि, यह संभव है कि कभी-कभी जहाजों को दक्षिणपूर्वी भारत के कोरोमंडल तट से सीधे पूर्व में समुद्र यात्रा करनी पड़ती या सिलोन और अंडमान द्वीपों से सुमात्रा के तट तक उन्हें जाना पड़ता था। दी पेरीप्लस ऑफ दी एरीथ्रियन सी जो कि प्रथम शताब्दी का ग्रीको रोमन स्त्रोत है, जानकारी देता है कि रोम, मिस्त्र, अदन, एरिकामेडू से मलाया द्वीप समूह तक व्यापार हो रहा था।
तथापि कलिंग निःसंदेह सुदूर पूर्व में प्रस्थान करने का सबसे महत्वपूर्ण स्थल था। वह ये भी स्पष्ट करता है कि क्यों चीनियों ने मलाया (या इंडोनेशियाई) द्वीपसमूह के अन्य द्वीपों को क्लिंग के रूप में संदर्भित किया, जो कलिंग का संक्षिप्त रूप था। ये सभी सन्दर्भ बताते हैं कि कलिंग, भारत में एक विशेष क्षेत्र था जो दुनिया के इस हिस्से में नाविकविद्या के इस प्रारंभिक समय में दक्षिण पूर्व एशिया के साथ अपने बंदरगाह पलाउरा के माध्यम से अधिक घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ था। कलिंग के तटवर्ती नगर दक्षिण-पूर्व एशिया के नगरों के माध्यम से चीन-अरब और रोम जुड़े हुए थे।12
पूर्वी महासागरों में समुद्री यात्रा की शुरुआत के समय के बाद से, मलाया प्रायद्वीप एशिया और आस्ट्रेलिया के महाद्वीपों के बीच एक व्यापक क्षेत्र था, जो व्यापार और वाणिज्य के अनूठे लाभ का उपभोग कर रहा था, और अपने भौगोलिक स्थिति के साथ-साथ अपने मूल उत्पादों के द्वारा दुनिया में प्रतिष्ठा अर्जित कर चुका था।
रेशम और मसालों का समुद्री मार्ग
रेशम का समुद्री मार्ग चीन के दक्षिण-पूर्वी तटीय क्षेत्रों और अन्य देशों के बीच व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए एक अनुकूल वाहक था। वहां दो प्रमुख मार्ग थेः पूर्वी चीन सागर रेशम मार्ग और दक्षिण चीन सागर रेशम मार्ग।
पूर्वी चीन सागर का रेशम मार्ग सबसे पुराना समुद्री यात्रा मार्ग था जो सुदूर पूर्व में पूर्वी झाउ राजवंश (770 – 250 ईसा पूर्व) के समकालीन था, जब उनकी सरकार ने कुछ चीनी लोगों को कोरिया में खेती करने के लिए कोष-कीट (रेशम कीट) पालन सिखाया और इन लोगों ने षेडोंग प्रायद्वीप में बोहेई खाड़ी के बंदरगाह से प्रस्थान किया था।
दक्षिण चीन सागर का रेशम मार्ग एक महत्वपूर्ण आवागमन का रास्ता था। जो चीन के पश्चिमी दिशा में बाहरी दुनिया के साथ आदान-प्रदान के लिए प्रयुक्त होता था। इस मार्ग को दक्षिण चीन सागर पर केंद्रित होने के कारण इसको ये नाम मिला था। उस समय इसके प्रस्थान के बिंदु मुख्य रूप से गुआंगजोउ, क्वांजोउ और निंगबो के क्षेत्र थे। इसका सर्वप्रथम उपयोग किन (221 – 206 ईसा पूर्व) और हान (206 ई.पू-220 ईस्वी) राजवंशों के दौरान किया जाता था।13
जहाज निर्माण और नौपरिवहन में तकनीकी प्रगति ने दक्षिण पूर्व एशिया, मलाका, भारत, सिलोन और फारस की खाड़ी के लिए नए समुद्री मार्गों को खोल दिया। ज्ञात हो कि उस समय की ज्ञात दुनिया में भारत और चीन बडे़-बडे़ विशाल जलपोत बनाते थे और जिनके पुरूषार्थी एवं योद्धा नाविकों ने प्रशांत और हिन्द महासागर की उताल तरंगों को चीरते हुए भूमध्य सागर तक जाते थे।14
थंग टुक – वैश्विक समुद्री व्यापार की कड़ी
‘समुद्री रेशम मार्ग’ के साथ, पश्चिम और पूर्व के मध्य, अंडमान तट ने समुद्र व्यापार में एक उत्कृष्ट भूमिका निभाई और उस समय सफलतापूर्वक दक्षिण-पूर्व एशिया और भारत के मध्य एक पड़ाव के रूप में विकसित हुआ। थंग टुक या मुआंग थोंग पुरातात्विक स्थल फांग नगा प्रांत में को खो खाओ, ता कुआ पा जिला में स्थित है। जब समुद्री मार्ग, समुद्र तट के साथ नौकायन करने से समुद्र के पार नौकायन मे बदल गए, तो दक्षिण भारत के जहाजों ने दक्षिण पश्चिम मानसून का उपयोग करते हुए हिंद महासागर को पार किया। थंक टुक एक उत्तम भौगोलिक स्थान पर है, जो कि खो खाओ द्वीप के पूर्वी हिस्से में है, जहां मानसून के मौसम में भी व्यापारी साल भर लंगर डाल कर माल चढ़ा सकते हैं। प्रायद्वीप में आगे सुविधाजनक यात्रा के लिए और नदी के साथ-साथ लैम फो पुरातात्विक स्थल तक, जो थाईलैंड की खाड़ी (चौया जिला, सूरत थानी प्रांत) पर स्थित समुद्री बंदरगाह था। यह मानना संभव है कि अंडमान तट के साथ जब प्रारंभिक संपर्क शुरू हुआ (जैसा कि खुआन लुक पट और फु खाओ थोंग में प्रमाणित है), नाविकों ने क्षेत्र के भौगोलिक विशेषताओं और परिदृश्यों के बारे में जानने और सीखने में कुछ समय व्यतीत किया होगा। सबसे पहले उन्होंने पूर्वोत्तर और दक्षिण-पश्चिम मानसून की दिशा के बारे में सीखा जो पूरे साल नियमित रूप से चलती थी। तब उन्होंने उन नदियों की खोज की जो अंडमान तट और थाईलैंड की खाड़ी के किनारे स्थित कस्बों के बीच अंतर-प्रायद्वीपीय मार्ग का काम कर रही थीं। उन्हें समुद्री डाकुओं से पीड़ित मलक्का के जलडमरूमध्य की यात्रा करने की आवश्यकता नहीं थी। परिणाम स्वरुप, ‘ता कुआ पा एवं बान डॉन बे’ नामक इधर से उधर जानेवाला-प्रायद्वीपीय व्यापार-मार्ग विकसित हुआ।15 थंग टुक एक ऐसा स्थान था जहां नाविक आराम करने हेतु रुकते और ता कुआ पा नदी के साथ यात्रा जारी रखने से पहले अपने सामानों को समुद्री नौकाओं से छोटी नावों में स्थानांतरित कर देते। साथ ही, छोटी नौकाओं से सामान जहाजों तक स्थानांतरित भी कर दिए जाता था। जब यह प्रक्रिया समाप्त हो जाती, तब जहाज समुद्र में चले जाते। यद्यपि, समुद्र की यात्रा पवन ऊर्जा पर निर्भर थी। मानसून की खोज तथा प्रायद्वीपीय स्थालाकृति की पूर्ण जानकारी मिलने से व्यापारियों को दक्षिण-पूर्व एशिया में अन्तर्देशीय और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार करने में काफी सुविधा हो गई।16
यहां के स्थानीय भाषा और भारत की भाषाओं के पुरालेख मिलते हैं। शिलालेख और पत्थर स्तम्भों के आधार कई स्थानों की सतह पर बिखरे हुए प्राप्त हुए है। 2003 में किए गए पुरातात्विक उत्खनन ने काफी नए साक्ष्य प्रकट किए। आठ स्मारकों की खोज की गई। यद्यपि उनकी हालत अच्छी नहीं थीं, पर यह पहली बार था कि हम जान पाए थे कि अंडमान तट की ओर से थाईलैण्ड की संस्कृति की प्राचीन वास्तुकला शैली कैसी दिखती है। इन साक्ष्यों ने एक बंदरगाह के रूप में थंग टुक की महत्वपूर्ण भूमिका पर पर्याप्त प्रकाश डाला है।17
गुप्तकाल में भारत का व्यापार
साहित्यिक स्त्रोतों से स्पष्ट है कि गुप्तकाल में भारत का विदेशी व्यापार विकसित था और अधिकांश समुद्री मार्ग द्वारा होता था। छठी सदी के लेखक कोसमस ने अपने ग्रन्थ ‘क्रिश्चियन टोपोग्राफी’ में सिन्दुस, ओरोंथा, कल्याण, चोल, मालाबार आदि बंदरगाहों का उल्लेख किया है।18 गुप्तकाल की स्थापना तक रोमन व्यापार का पतन हो चुका था और दक्षिण के तीन बंदरगाह मुजरिस, अरिकामेडु और कावेरीपतनम् का महत्त्व भी कम हो गया था। किन्तु यह भी एक तथ्य है कि रोमन साम्राज्य के पतन के बाद एशिया माइनर में बाइजेण्टाइन साम्राज्य की स्थापना हुई और भारत का व्यापारिक संबंध उससे पुनः स्थापित हुआ। गुप्त शासकों ने इथोपिया के माध्यम से बाइजेंटाइन साम्राज्य तक पहुँचने की कोशिश की थी क्योंकि कोसमस भारत एवं इथोपिया के मध्य व्यापार का उल्लेख करता है। दूसरी तरफ रोमन सम्राट् जस्टिनियन ने इथोपिया नरेश हेल्लेस्थेयास से समझौता किया जिससे कि वह फारसियों की शत्रुता का सामना कर सके। 550 ई. तक रोम ने चीनी लोगों से रेशम बनाने की कला सीख ली थी। जिस कारण भारत की व्यापारिक मध्यस्थ की भूमिका समाप्त हो गई। इससे भारत-रोमन व्यापार को एक धक्का लगा। गुप्तकाल में जहाँ एक ओर रोमन व्यापार का पतन हुआ वहीं दूसरी ओर चीन और दक्षिण पूर्व एशिया के साथ व्यापार में वृद्धि हुई।19 कोसमस के अनुसार छठी सदी के मध्य में भारत के पूर्व एवं पश्चिमी तट श्रीलंका के माध्यम से जुड़ते थे। चीन और भारत के बीच व्यापार संभवतः वस्तुओं के विनिमय पर आधारित था। क्योंकि न तो चीन के सिक्के भारत में मिलें हैं और न ही भारत के सिक्के चीन में। इथोपिया से हाथीदांत, अरब से घोडे़ और चीन से रेशमी वस्त्र मंगाए जाते थे। कोसमस के अनुसार भारत के महत्त्वपूर्ण बंदरगाह क्षेत्र निम्नलिखित थे- 1. सिन्ध, 2. गुजरात, 3. कल्याण, 4. चोल और मालाबार। तट पर स्थित पाँच बंदरगाह थे- 1. परती, 2. मंगलौर, 3. शलीपत्तन, 4. नलोपत्तन, 5. पांडोपत्तन।20
कालिदास की रचनाओं जैसे अभिज्ञानशाकुन्तलम, रघुवंश, कुमारसंभव आदि से भी गुप्तकालीन व्यापारिक जीवन की झांकी मिलती है। समकालीन विश्व के बहुत से देशों से भारत के व्यापारिक संपर्क थे। उनसे बहुत सी वस्तुएँ आयात व निर्यात की जाती थीं। पूर्वी देशों में ब्रह्मा, चीन, स्वर्णभूमि आदि से व्यापार किया जाता था। प्रथम सदी के पेरिप्लस नामक ग्रन्थ में भारत से आयात व निर्यात होने वाली वस्तुओं के नाम मिलते हैं।21 भृगुकच्छ, कल्याण, ताम्रलिप्ति, माले (मालाबार) आदि गुप्तकालीन प्रमुख बंदरगाह थे। गंगा के डेल्टा पर स्थित ताम्रलिप्ति भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था। यहाँ स्थल और जल दोनों मार्ग मिलते थे। रघुवंश और दशकुमारचरित से भी स्पष्ट है कि ताम्रलिप्ति बंदरगाह से व्यापारिक वस्तुओं का आयात-निर्यात अधिक होता था। चीनी यात्रा फाह्यान ने कपिशा का उल्लेख किया है जहाँ से ईरान होकर भारतीय वस्तुएँ अन्य देशों को जाती थीं। भारत से बाहर जाने वाली वस्तुओं में उल्लेखनीय थीं- रेशम, लौंग, चंदन, मोती, कपडे, चाँदी, हाथीदाँत, गैडे के सींग, केसर, सुगंधित पदार्थ, लोहे का बना सामान, प्रसाधन सामग्री आदि। रेशम के अलावा मलमल, कलिंग क्षेत्र का कालिंगम् नामक वस्त्र तथा कामरूप का महीन वस्त्र आदि भी निर्यात होते थे। बाहर से आने वाली वस्तुओं में चीनांशुक नामक कौशेय वस्त्र उल्लेखनीय हैं जिसका आयात चीन से होता था। कम्बोज देश से घोड़े आदि भी आते थे। अरबी घोड़ों की भी भारत में मांग थी। पेरिप्लस ऑफ दा ऐरिथियन्सी में उल्लेख है,22 फिनम्बरस (मिस्र व सीरिया के आसपास) के राज्य में निम्नलिखित वस्तुयें लायी जाती थीं- सुरा, लाओदिकी, अरबी टिन, सीसा, मूंगा, महीन-मोटे विभिन्न प्रकार के वस्त्र, हाथ भर चौडे़ चमकीले कमरबन्द्ध, काँच, सिंदूर, स्वर्ण एवं रजत मुद्राएँ, अनेक प्रकार के अवलेह, राजा के लिए विभिन्न प्रकार के उपहार व भेंट, चाँदी के मूल्यवान बर्तन, गायक लड़के, अन्तःपुर के लिए सुन्दर युवतियाँ, पुरानी मदिरा इत्यादि।23
पश्चिमी भारत के बंदरगाहों से गजदंत, गोमेद, लाल, मलमल, मोटा वस्त्र, रेशम, सूत, पीतल आदि वस्तुयें निर्यात की जाती थीं। भारतीय मिट्टी के पात्र भी इस समय निर्यात होते थे जो विदेशों में लोकप्रिय थे। दक्षिण भारतीय बंदरगाहों से विदेशों को भेजी जाने वाली वस्तुयें थीं-काली मिर्च, मोती, गजदन्त, पारदर्शी पत्थर, हीरा, नीलम, गोमेद, मूंगा, कछुए के आवरण आदि।24 कस्तूरी, शैलेय, काली मिर्च, सफेद मिर्च, इलायची, मालाबार के बंदरगाह से निर्यात होती थी। बाँस, बारहसिंघे के सींग भी विदेश को निर्यात होते थे। लाल मोती, सीसा आदि पश्चिमी देशों को भेजी जाने वाली व्यापारिक वस्तुएँ थीं। दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों से भी व्यापार में बढ़ोत्तरी हुई, साथ ही सांस्कृतिक संपर्क भी बढ़े। दक्षिण पूर्वी एशिया से प्राप्त कलावशेषों से भी इसकी पुष्टि होती है। फाह्यान ने ताम्रलिप्ति से श्रीलंका होते हुए चीन की यात्रा एक बड़े समुद्री जहाज से की थी। चीन की तरफ जाने के लिए समुद्री मार्ग के अलावा कई स्थल मार्ग भी थे जैसे सुलेमान व कराकोरम पहाड़ी से होकर जाने वाला मार्ग।25
दक्षिण पूर्व व्यापार के प्रमुख तत्त्व
पूर्व-आधुनिक युग में, दक्षिणपूर्व एशियाई क्षेत्र को अंतर्राष्ट्रीय स्रोतों में विशाल धन की भूमि के रूप में चित्रित किया गया है। वहां के विकास को पूर्व-मध्यकाल की अवधि में विश्व इतिहास की समूर्णता के लिए निर्णायक रूप से महत्त्वपूर्ण माना जाता है। पूर्वी गोलार्ध के सभी महाद्वीप के लेखकों, यात्रियों, नाविकों, व्यापारियों और अधिकारियों को दक्षिणपूर्व एशिया के अनोखे उत्पादों के बारे में पता था और ईसाई युग की दूसरी सहस्राब्दी तक, अधिकांश लोग उसकी व्यापारिक बंदरगाहों और प्रमुख राजनीतिक केंद्रों से अवगत थे (पार्कः 2010)।26
ईसाई युग के प्रारंभिक शताब्दियों में भारतीयों और पश्चिम के लोगों ने दक्षिणपूर्व एशिया को गोल्डन खेरसोन, ‘‘लैंड ऑफ गोल्ड’’ (स्वर्णभूमि) कहा, और इसके बाद यह अधिक लंबा समय नहीं था जब यह क्षेत्र अपने काली मिर्च और इसके वर्षावन के उत्पादों के लिए जाना जाने लगा। सर्वप्रथम सुगंधित लकड़ी व राल और फिर बेहतरीन और दुर्लभ मसालों के लिए यह द्वीप समूह जगत प्रसिद्ध हो गया। (व्हीट्लीः 1961)। सातवीं शताब्दी तक मध्य पूर्व एशिया और चीन के लोगों ने दक्षिण पूर्व एशिया को भारत और चीन के बीच महत्वपूर्ण मार्ग के पड़ाव के रूप में, साथ ही साथ मसालों और जंगल उत्पादों के स्रोत के रूप में जिसका पर्याप्त बाजार मूल्य था के बारे में एक अत्यन्त रोमांचक छवि का निर्माण किया।27 पंद्रहवीं शताब्दी तक अटलांटिक के बंदरगाहों से नाविक, इन मसालों वाले द्वीपों को खोजने के लिए अज्ञात महासागरों में अपनी जान जोखिम में डालकर उतरने लगे। वे सभी जानते थे कि दक्षिणपूर्व एशिया दुनिया की मसालों की राजधानी है। 1000 ई. से अठारहवीं शताब्दी तक लगभग, सम्पूर्ण विश्व व्यापार अधिक या कम दक्षिण पूर्व एशिया के अंदर और बाहर मसालों के विपुल भण्डार द्वारा नियंत्रित किया गया था (रीडः 1988, 1994)। इन शताब्दियों के दौरान इस क्षेत्र और उसके उत्पादों ने कभी भी अपना महत्व नहीं खोया। पाम के पेड़, सौम्य बहाव, चौड़े समुद्र तट, खड़ी पहाड़ी की ढलानें, जो सुन्दर वनस्पति से आच्छादित थीं, और सुन्दर पक्षियों और शानदार रंगों के फूल, साथ ही नारंगी और सुनहरे उष्णकटिबंधीय सूर्यास्त ने अपने आगंतुकों के साथ-साथ अपने लोगों को भी कई कालों से मंत्रमुग्ध कर रखा था।28
दक्षिणपूर्व एशिया में आर्थिक विकास की कहानी ईसाई युग से बहुत पहले शुरू होती है। सदियों से दक्षिणपूर्व एशिया एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान वाला क्षेत्र था। प्रारंभिक ईसाई युग से हीं, दक्षिणपूर्व एशिया में कुशल किसान, संगीतकार, धातुकर्मी और नाविक थे। ईसा की प्रथम शताब्दी से ही भारत के लोग दक्षिण-पूर्व एशिया की अकूत सम्पदा और मानव व्यवहार की अनगनित वस्तुओं से परिचित हो चुके थे। यहां का मूंगा, मोती, मशाले, चन्दन की लकड़ी, अन्य इमारती लकड़ी और स्वर्ण को भारतीय हुनरमंद लोग ऐसे विनिर्मित वस्तुओं में परिवर्तित कर रहे थे, जिसकी रोमन और अरब जगत में भारी मांग थी।29 इस्लाम धर्म के उदय तक तो दक्षिण-पूर्व एशिया की हजारों वस्तुओं को ज्ञात दुनिया के देशों में बेचकर भारतीय लोग भारत को सोने की चिड़िया बना चुके थे। दक्षिण-पूर्व एशिया की उपरोक्त वस्तुओं के आपूर्तिकर्ता के रूप में भारत की पहचान बन चुकी थी और गुप्त काल में तो भारत दुनिया का आर्थिक नेता बन चुका था। उस समय की ज्ञात दुनिया (चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया, अरब जगत और यूरोप) भारत द्वारा आपूर्ति की जाने वाली वस्तुओं पर ज्यादा निर्भर थी। भारत इस ज्ञात दुनिया के केन्द्र में था और पूर्व और पश्चिम भारतीय वस्तुएं, विचार और धर्म पर अवलंबित था। इस्लाम का उदय नहीं हुआ था और ईसाइयत रोम के परकोटे के बाहर नहीं निकली थी अतः भारतीय धर्म, संस्कृति और ज्ञान का डंका सम्पूर्ण भूमण्डल पर बज रहा था।30
दक्षिण-पूर्व के आर्थिक विकास के प्रमुख कारक
यह संभव है कि दक्षिणपूर्व एशियाई लोग चावल को वातावरण के अनुकूल बनाने और चावल की खेती विकसित करने वाले पहले व्यक्ति थे। ज्ञात चावल वाले संस्कृतियों के युग से प्रारंभिक पुरातात्विक साक्ष्य, जो 2000 ईसा पूर्व के प्रारम्भ तक जाते हैं, दक्षिण पूर्व एशियाई स्थलों (विशेष रूप से पूर्वोत्तर थाईलैंड) में पहचाने गए हैं, और पुरातत्त्वविदों को उन चावल के पौधों के साक्ष्य मिल गए हैं जिन्हें जंगली और मध्यवर्ती चरण के बीच के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है और जिसे 3000 ईसा पूर्व का दिनांकित किया गया है। लेकिन इन लोगों ने अपने क्षेत्र में कभी चावल के रूप मे एकमात्र फसल की परंपरा को विकसित नहीं किया। चावल के अलावा, स्थानीय आबादी ने गन्ना, रतालू, साबूदाना, केला, और नारियल समेत कई अन्य फसलों को भी उगाया और इस्तेमाल किया। वे स्पष्ट रूप में सर्वप्रथम चूजे और सुअर पालने वालों में से भी एक थे (बेलवुडः 1997 ओ‘कोनोरः 1995)।31
इनकी दूसरी विशेषता धातुओं की पहचान और धातु विद्या में थी। ऐसा हो सकता है कि दक्षिणपूर्व एशियाई लोगों ने स्वतंत्र रूप से कांस्य खोज लिया और बांस के विशेष गुणों के आधार पर अपनी परिष्कृत धातुकर्म की तकनीक विकसित की। चूंकि इस पौधे का तना खोखले खंडों में होता है, इसलिए वे इसे एक फायर पिस्टन का आकार दे कर उपयोग करने में सक्षम हुए, जिससे धातु को तरल पदार्थ में बदलने के लिए आवश्यक गर्मी उत्पन्न की जा सके। पुरातत्वविदों ने पूर्वोत्तर थाईलैंड से प्राप्त कांस्य वस्तुओं को 1500 ईसा पूर्व का दिनांकित किया है, और लोहे के कंगन और भाले की नोकों को लगभग 500 ईसा पूर्व तक का दिनांकित किया है। डाँगसोन (आधुनिक वियतनाम में) में पाए जाने वाले सुंदर बड़े कांस्य अनुष्ठानिक ड्रम (ढोल) पूरे दक्षिणपूर्व एशिया में देखे जा सकते हैं और जो स्पष्ट साक्ष्य प्रदान करते है कि साम्राज्यवादी भारत या चीन के साथ किसी भी महत्वपूर्ण व्यापार32 से पहले दक्षिणपूर्व एशियाई दुनिया में एक व्यापक और कुशल विनिमय तंत्र मौजूद था (ब्रोंसनः 1992)। क्योंकि जो विदेशी व्यापारी वहां के बन्दरगाहों पर उतरे उन्हें खरीद बिक्री में कोई दिक्कत नहीं हुई।
उनकी विशेषज्ञता का तीसरा क्षेत्र, नौकायन और व्यापार का है, जो कुछ भागों में यह स्पष्ट करता है कि किस प्रकार यह ड्रम (ढोल), अन्य भौतिक वस्तुओं के बीच व्यापक रूप से फैल गया। समुद्री क्षेत्र के लोग दक्षिणी महासागरों में विकसित प्रारंभिक जलयान के अग्रदूत थे (मांगुइनः 1994)। ऐतिहासिक काल से पहले, उन्हें पता था कि मॉनसून और मौसमी हवाएं जो मध्य एशियाई देशों में गर्मियों के दौरान प्रायद्वीप की ओर चलती हैं और मध्य एशियाई सर्दी की ठण्ड के दौरान प्रायद्वीप से दूर चली जाती हैं और उनको कैसे उपभोग में लिया जाता है। मध्य एशियाई इस उद्घोष की आधारभूत लय ने व्यापारियों और महानाविकों को एक अवसर प्रस्तुत किया। जिसे दक्षिणपूर्व एशिया के समुद्र पर चलने वाले परदेसियों ने छीन लिया और इस मानसूनी ज्ञान ने उन्हें उताल तरंगों का साथी बना दिया। उन्होंने अपने घरों से हजारों मील की सामुद्रिक दूरी तय की। महातरंगों और लहरों का, बादलों की संरचनाओं का, हवाओं का, पक्षियों और समुद्री जीवन का इन साहसिक यात्राओं के माध्यम से अध्ययन किया और बहुमूल्य जानकारी प्राप्त की। यह परिष्कृत और बेहतरीन ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से पारित और अग्रसारित किया गया था।33 वे अपने लोगों को ‘‘जहाजीभार’’ (जहाज मे बैठे यात्री या रखे सामान) के द्वारा मापते, और थोड़ी सी बहस पर ही, ये ‘‘जहाजीभार’’ द्वीप छोड़ देते जहां पर वे पहले से ही भारी मात्रा में केंद्रित होते थे और निर्जन द्वीपों पर नए समुदायों की स्थापना के लिए जलयात्रा करते थे।34 अतएव ये मलाया-ऑस्ट्रोनेसियन लोग अंततः आधी पृथ्वी तक फैल गए और यह क्षेत्र पूर्वी अफ्रीकी तट पर मेडागास्कर से लेकर प्रशांत महासागर में ईस्टर द्वीप तक विस्तृत था। वह आगे यहा गुप्तकालीन भारत और बाद में थांग कालीन चीन के व्यापारिक साझेदार बन गए।
निष्कर्ष :
भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार की एक बहुत बड़ी विशेषता थी कि इन द्वीपों से भारत ढेर सारी वस्तुएं कोरोमंडल तट पर उतारता था और अपने उपभोग से बची कुछ वस्तुअओं को यों का यों और कुछ का विनिर्माण कर पश्चिमी देशों को निर्यात कर देता था। गुप्तकाल से 12वीं शताब्दी तक भारत पश्चिमी देशों (अरब, रोमन साम्राज्य, मिस्र और यूरोप) की गोमेद, गजदन्त, बेशकिमती पत्थर, मलमल, मोटा वस्त्र, रेशम, सूती वस्त्र, पीपल और ताम्बे के बर्तन कालीमिर्च, मोती, इलायची, पारदर्शी पत्थर, हीरा, नीलम मूंगा, कस्तूरी, बांस, बारहसिंगे के सींग व सीसा इत्यादि का निर्यात कर रहा था। इनमें से आधी वस्तुएं दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों से आती थीं। भारत को स्वर्ण सीधे, बेशकीमती और देव दुर्लभ वस्तुओं के पश्चिमी देशों के निर्यात से आ रहा था। इस प्रकार इस समय के (चौथी शताब्दी से 11वीं शताब्दी) विदेशी व्यापार से अथाह सुवर्ण भारत की ओर आ रहा था। फलतः भारत की ख्याति दुनिया में सोने की चिड़िया के रूप में हुई। इस प्रकार इस व्यापार की प्रगति से भारत दुनिया के लोगों में आकर्षण का केन्द्र बन गया। इस व्यापार से इन द्वीपों का भी भौतिक और आध्यात्मिक उत्थान हुआ।
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प्राचार्य,
राजकीय महाविद्यालय, उच्चैन,
भरतपुर, राजस्थान