इतिहास सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण जानकारी
1. ऐतिहासिक एवं अनैतिहासिक
बाइबिल की धार्मिक अवधारणा कि इस विश्व की उत्पत्ति 4004 वर्ष ई0पू0 में हुई थी, इसलिये उसके पूर्व के समय को पश्चिम के इतिहासकारों नें अनैतिहासिक घोषित कर दिया। उनके अनुयायी भारतीय इतिहास के विद्वानों ने भी इसे स्वीकार कर लिया क्योंकि भारत की तत्कालीन विदेशी सरकार ने इसे सरकारी शिक्षा संस्थाओं के इतिहास लेखन में शुरू कर दिया। भारत के इतिहास में कोई भी समय अनैतिहासिक नहीं हुआ क्योंकि भारत के इतिहास का प्रारंभ इस पृथ्वी पर प्रथम मानवोत्पत्ति से होता है। इतना ही नहीं जब हिरण्यगर्भ के विस्फोटित विश्व द्रव्य से सृष्टि का चक्र आरंभ हुआ तो सर्वप्रथम कालपुरुष की स्थापना हुई उसी काल के बिन्दु से भारत का इतिहास प्रारंभ होता है। पश्चिम में काल के इस तत्त्व दर्शन की अवधारणा स्पष्ट न होने के कारण विश्वोत्पत्ति 6000 वर्ष पूर्व हुई, यह पूर्णतः काल्पनिक है और इसी कारण पश्चिम का यह मत ऐतिहासिक और अनैतिहासिक सिद्धांत पूर्णतः मिथक है।
2. मिथक का निर्माता यूनान
काल के संख्यात्मक और इतिहास दृष्टि के दीर्घकाल के अत्यंत अभाव में यूनान ने कभी शक्तिशाली मिथकों का निर्माण किया था। वहां के देवी देवताओं के न तो माता-पिता है और न ही उनके रहने के स्थान। वहां के शक्ति के देवता का नाम हरकुलीज़ है। वह काल्पनिक है। सिकन्दर और उसकी माता उसका पूजन करती थी। यूनान को यूरोप की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास का पिता कहा जाता है। वहां से डलजीवसवहल-मिथक की धारणा यूरोप पहुंची और वहां से विश्व के ईसाई देशों में फैल गयी। भारत में अंग्रेजी की विदेशी ईसाई सरकार ने वेदों के देवताओं को डलजीवसवहल (मिथक) घोषित कर दिया जो पूर्णतः असत्य है। हमारे यहां के देवी देवता के माता-पिता हैं । उनके रहने के स्थान हैं। भारत की संस्कृति विज्ञान प्रधान है, मिथक प्रधान नहीं। यहां कभी भी मिथकों का निर्माण नहीं हुआ। यहां के ऋषि-मुनियों ने ज्ञान-विज्ञान के गहन और गूढ़ रहस्यों के समझने और समझाने के लिये सत्य कथायें लिखी और प्रतीकों और रूपकों का आश्रय लिया तथा मिथकों का कभी निर्माण नहीं किया। यह पूर्णतः पाश्चात्य कल्पना है और इस का जन्म काल तत्व के ज्ञान के अभाव के कारण हुआ है।
3. मानवों का वर्गीकरण
काल के संख्यात्मक और इतिहास दृष्टि के दीर्घकाल के अत्यंत अभाव में यूनान ने कभी शक्तिशाली मिथकों का निर्माण किया था। वहां के देवी देवताओं के न तो माता-पिता है और न ही उनके रहने के स्थान। वहां के शक्ति के देवता का नाम हरकुलीज़ है। वह काल्पनिक है। सिकन्दर और उसकी माता उसका पूजन करती थी। यूनान को यूरोप की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास का पिता कहा जाता है। वहां से डलजीवसवहल-मिथक की धारणा यूरोप पहुंची और वहां से विश्व के ईसाई देशों में फैल गयी। भारत में अंग्रेजी की विदेशी ईसाई सरकार ने वेदों के देवताओं को डलजीवसवहल (मिथक) घोषित कर दिया जो पूर्णतः असत्य है। हमारे यहां के देवी देवता के माता-पिता हैं । उनके रहने के स्थान हैं। भारत की संस्कृति विज्ञान प्रधान है, मिथक प्रधान नहीं। यहां कभी भी मिथकों का निर्माण नहीं हुआ। यहां के ऋषि-मुनियों ने ज्ञान-विज्ञान के गहन और गूढ़ रहस्यों के समझने और समझाने के लिये सत्य कथायें लिखी और प्रतीकों और रूपकों का आश्रय लिया तथा मिथकों का कभी निर्माण नहीं किया। यह पूर्णतः पाश्चात्य कल्पना है और इस का जन्म काल तत्व के ज्ञान के अभाव के कारण हुआ है। 3. मानवों का वर्गीकरण पश्चिम के नीतितत्त्व शास्त्रियों ने विश्व के मानवों का शारीरिक लक्षणों के आधार पर वर्गीकरण कर उनको तीन भागों में विभक्त कर दिया। ये वर्ग हैं- (1) आर्य, (2) मंगोल और (3) हब्बशी वंशी
आर्य – गोरा रंग, कद लम्बा, नाक नोकीली, चेहरा बैजवी, आंखें बड़ी और उनके रहने का क्षेत्र हिन्दुस्तान से पश्चिम की ओर इंग्लैण्ड तक घोषित कर दिया।
मंगोल- रंग पीला, कद छोटा, शरीर गठीला-ठोस, नाक चपटी, सिर गोल, आंखें छोटी;चपद ीवसम सपामद्धएगरदन कन्धे से मिली हुई। उनका क्षेत्र हिन्दुस्तान से पूर्व की ओर सारा दक्षिण एशिया तय कर दिया।
हब्बशी – रंग काला, कद लम्बा, शरीर ठोस, होंठ ऊपर की ओर उठे हुये, उनके रहने का क्षेत्र अफ्रीका तय कर दिया।
इस प्रकार रंग भेद के आधार पर मानव विभक्त हो गये और हब्बशियों के बारे में निकृष्टता और घृणा का भाव पैदा हो गया और पश्चिम के गोरों ने उनको अपना दास बना लिया। हर प्रकार से उनको दबाकर ईसाई बनाना शुरु कर दिया। इससे आर्य अनार्य, आर्य द्रविड़ की समस्या पैदा हो गयी। पाश्चात्य नीति शास्त्रियों ने इस वर्गीकरण के आधार पर यह भी आविष्कार किया कि मानव रंग भेद के कारण तीन जोड़ों से पैदा हुये हैं। आज वैज्ञानिक अनुसंधानों से यह सिद्ध हो गया है कि यह वर्गीकरण निराधार है। शारीरिक रंग आदि परिवर्तन भौगोलिक कारणों से होते हैं। विज्ञान ने यह भी प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य के शरीर में ऐसी ग्रन्थियां होती है जो अपना समय आने पर शरीर में कई बदल कर देती है। अतः अब पश्चिम के विज्ञान ने नवीन अनुसंधानों के प्रकाश में अपनी भूल को सुधार लिया और वह भारत के सृष्टि तत्त्व दर्शन की वैज्ञानिक दृष्टि तक पहुंच गये हैं। भारतीय सृष्टि-तत्व दर्शन के अनुसार श्री ब्रह्मा जी सृष्टि के निर्माता हैं और उन्हीं के संकल्प से ही मानवोत्पत्ति हुई। अतः भरतीय सृष्टि सिद्धान्त के अनुसार सब मानव एक कुल के हैं- वे गोरे रंग के हो या काले रंग के, छोटे कद के हों या लम्बे कद के, वे सब एक हैं। विश्व के समस्त मानवों के बारे में एक ही परिवार की ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ मान्यता है।
4. काल विभाजन
पश्चिम की संस्कृति कभी भी कब्रों की हड्डियों से बाहर नहीं निकल सकी। बुत, पैरामिड, मम्मी, संग्रहालय उसके परिपोषक हैं। पृथ्वी की जीवन की धारा के इतिहास की खोज के लिये 19 वीं शताब्दी में अस्थि शास्त्र ;च्ंसमवदजवसवहलद्धकी विधिवत् आधारशिला रखी गयी और हड्डियों के सैम्पल सर्वे से पृथ्वी पर मानव के इतिहास की खोज आरम्भ हुई। जैसे जैसे अस्थियां मिलती गयी वैसे वैसे इतिहास का अन्दाजा भी होता गया। उनका वैज्ञानिक चिंतन पुरानी हड्डियों के बाद और नई हड्डियों के मिलने से बदलता चलता रहा। यह पद्धति न तो तर्क संगत है और न ही प्रमाणिक। अतः पृथ्वी पर मानव के इतिहास को जैसे अस्थि शास्त्रियों ने हड्डियों के सैम्पल सर्वे में कई रूपों में सजाया है वैसे ही वहां के इतिहासकारों ने पश्चिम के इतिहास को रूपकों अलंकारों-यथा पाषण युग, पूर्व पाषाण युग, धातु युग, ताम्र युग, स्वर्ण युग आदि में बांटा है। इन रूपकों, अलंकारों का अस्तित्व और गुणवत्ता उनकी सीमा तक है- तात्विक नहीं है। भारत में न पाषण युग हुआ है और न ही धातु युग। भारत के विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में सब धातुओं का वर्णन है। इसी प्रकार पश्चिम का समय विभाजन,।दबपमदजए उमकपमअंस और उवकमतद शाब्दिक है- तात्विक नहीं। काल का प्रत्येक खंड अपने इतिहास के क्रम में ।दबपमदजएउमकपमअंस और उवकमतद होता है। पाश्चात्य इतिहासकारों ने और इन्हीं के अनुगामी भारतीय इतिहासकारों ने इस शाब्दिक विभाजन को उवकमतद.आधुनिक काल को ब्रिटिश काल कहा है, जो पूर्णतः मिथ्या है। यहां वेदों के प्रारंभ से आज तक इतिहास का एक ही काल हिन्दू काल रहा है और आगे भी यही रहेगा। यहां इतिहास का कोई भी विदेशी मुस्लिम या ब्रिटिश काल नहीं हुआ है।
5. काल और इतिहास
भारत की संस्कृति ने काल और इतिहास को एक धरातल पर देखा है। काल यदि बिम्ब है तो इतिहास उसका प्रतिबिम्ब और इतिहास बिम्ब है तो काल उसका प्रतिबिम्ब है। इनका अंग-अंगी भाव सम्बन्ध है। जो काल है वह इतिहास है, और जो इतिहास है, वह काल है।
6. काल और विज्ञान
भारतीय चिंतन दर्शन की परम्परा में इतिहास कला नहीं, विज्ञान और शास्त्र है। इसी कारण भारतीय इतिहास दृष्टि का विषय प्रवर्तन हिरण्यगर्भ की संरचना से होता है। इस इतिहास शास्त्र की सामग्री अत्यंत प्राचीन है और इसका सर्वप्रसिद्ध नाम पुराण है। ‘यस्मात् पुरा ह्यभूच्चैतत्पुराणं तेन तत्स्मृतम्’ अर्थात प्राचीन काल में ऐसा हुआ था, इस अर्थ में पुराण है। पुराण और प्राचीन इतिहास के पांच लक्षण तय किये गये हैं-अर्थात् संपूर्ण विवेच्य सामग्री को बांट पांच विषयों में दिया गया- 1. सर्ग, 2. प्रतिसर्ग, 3. मन्वन्तर, 4. वंश और 5. वंश अनुचरित – सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च। वंशानुचरितचैव पुराणं पंचलक्षणम्।। पहले तीन लक्षणों का सीधा संबन्ध विज्ञान से है और 2 का इतिहास से।
7. इतिहास दृष्टि
भारत की इतिहास दृष्टि या इतिहास बोध अत्यंत प्राचीन है। इसका विषय प्रवर्तन हिण्यगर्भ की संरचना से होता है। प्रारंभ से ही वेदों के याज्ञिक कर्म-काण्डों में इतिहास ज्ञान विवेचित रहा है। अश्वमेध में संबन्धित सम्राट के वंश की 14 पीढ़ियों के इतिहास का उच्चारण किया जाता है। इतिहास के ज्ञान का अन्य धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठानों में भी प्रयोग आवश्यक था। इस के प्रशिक्षण की भी व्यवस्था की जाती थी। राजा, महाराजाओं के लिये इसकी शिक्षा अनिवार्य थी। प्राचीन भारत में इतिहास का ज्ञान विद्वता का लक्षण माना जाता था। सम्पूर्ण भागवत सुनाने के बाद भगवत्पाद श्री शुक स्वायम्भुव मन्वन्तर से अद्यवत् तक के 1 अरब 97 करोड़ वर्षों के वर्णित इतिहास का महत्त्व परीक्षित को स्पष्ट करते हैं :- ‘हे! परीक्षित इस लोक में बड़े बड़े महापुरुष हो गये हैं। वे अपने तेज और यश का विस्तार कर इस पृथ्वी पर से चले गये। उनके इतिहास की गाथा में मैंने तुम्हें विज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति के लिए कही है। इसे तुम वाणी का वैभव और विलासता न समझना। इसमें जीवन का परम अर्थ और तत्त्व समाहित है। आज से पांच हज़ार वर्ष पूर्व जगत गुरु महर्षि वेद व्यास कहते हैं कि इतिहास पंचम वेद है। वेदों की व्याख्या इतिहास और पुराणों से करनी चाहिये।