गांव का इतिहास

नेरटी : अतीत से वर्तमान तक

डॉ. गौतम शर्मा व्यथित

(वर्ष 13, अंक 1-2) चैत्र-आषाढ़ मास कलियुगाब्द 5122 अप्रैल-जुलाई 2020

शोध सारांश

भारतवर्ष में प्रत्येक गांव अपना विशेष महत्त्व रखता है। हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा का नेरटी गांव अपनी ऐतिहासिकता, सामाजिक समरसता व सांस्कृतिक विरासत के कारण विश्व विख्यात है। इस गांव का इतिहास ऐतिहासिक दृष्टि से चम्बा के राजा राज सिंह व कांगड़ा के राजा संसार चन्द के साथ जुड़ा हुआ है। इसी गांव के पास ऐतिहासिक नेरटी का युद्ध हुआ था। ऐतिहासिक शिव मन्दिर नेरटी जिसका निर्माण राजा सिंह के बेटे राजा जीतसिंह ने अपने पिता की स्मृति में करवाया था। मन्दिर के गर्भगृह में सिंहासनुमा जलहरीपीठ के मध्य प्रस्तर चित्रकला से सुसज्जित शिवलिंग है। इसी गांव के पास कांगड़ी चित्रकला का भी विकास हुआ।

संकेत शब्द : पणिहांद, चणाट, कुआल, स्वांग, चितरेरे, रासलीला, रामलीला, तिजारती, जलहरीपीठ, महेंझर, ढोलरू, बरतेसरी, बीरसा कला, घिरथ, लोकोपचारक, बरंग ग्रन्थ, सरदा वैद।

भौगोलिक स्थिति

               नेरटी गांव की सीमा राष्ट्रीय राजमार्ग पठानकोट से कांगड़ा के कस्बा रैत बस स्टाप से दक्षिण की ओर एक किलोमीटर की दूरी से आरंभ होती है। नेरटी गांव का विस्तार तीन किलोमीटर लम्बा और दो किलोमीटर चौड़ा है। यहां की आवासीय संरचना रियासती सामरिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप की गई है जो वर्तमान में भी ज्यों की त्यों विद्यमान है। गांव का भूगोल समतली-नहरी, बंजर भूमि (ओतड़ी) जो तीन तरफ से वन संपदा से घिरा हुआ व खौहली तथा चम्बी (चम्पा) खड्डों (लघु नदियों) के मध्य स्थित है। इसके उत्तर में धौलाधार पर्वतमाला है जो हर मौसम में यहां के वातावरण को स्वच्छ-आकर्षक बनाती नित्य नवीन प्राकृतिक छवियों-दृश्यावलियों से लुभाती है।

               यह गांव विभिन्न समुदायों व जातियों में विभक्त है। सैन्य परिवारों की बस्ती, वन-बाड़ियों के दामन में व नालों की ओट में स्थित है। इनमें अधिकांशतः बालौरिये, पठानियें, मनकोटिए, सीमतिये, भन्द्राल, सल्याल्च आदि जातीय राजपूत परिवार हैं। इससे स्पष्ट है कि ये बस्तियां सामरिक अभियानों या रियासती सीमा सुरक्षा के अनुरूप बसी-बसाई होंगी। कृषक वर्ग तथा जलवाहकों (झीरों) की बस्तियां एक तरफ हैं। सम्प्रतिकाल में पौंगबांध निर्माण के कारण हुए कुछ विस्थापित ब्राह्मणों के घर गांव के आरंभ में हैं। कुछ भरमौर चम्बा के गद्दी जातीय सम्पन्न परिवार भी यहां स्थानीय निवासियों से भूमि खरीद कर गांव के दूसरे छोर पर जंगल के निकट बसे हैं। ब्राह्मणों में जातियों में उपाध्याय (पादे) थनीक, पूजकी आदि एक दर्जन परिवार हैं। पूर्वकाल में नगरकोटिए ब्राह्मण परिवारों का कार्य पुरोहितचारी, बरतेसरी, बदंगी, ज्योतिष व शिक्षण आदि रहे हैं। ब्राह्मण-दीक्षित परिवार में चम्बा नरेश की स्मृति में बने शिव मन्दिर में पूजा तथा स्मारक सुरक्षा हेतु चम्बा रियासत द्वारा सन् 1799 जागीर देकर बसाया गया है जिसके अब 13 परिवार हैं।

               गांव में जलापूर्ति हेतु तीन बावड़ियां पांच कुएं, तीन नाड़ू (ढलान से फूटते जल-फब्बारे) तथा पांच तालाब थे जिनके साथ कई दण्तकथाएं जुड़ी हुई हैं। ‘कौल फुलां दा तल़ा’ नहरी समतली खेतों के मध्य था जिसमें कभी कमल के फूल शोभायमान होते थे। वर्तमान में इसकी स्थिति सोचनीय है। जलापूर्ति नलकों द्वारा होने पर पारम्परिक पणिहांद बिखरते-उपेक्षित हो रहे हैं। इन पर लगने वाली ग्रामीण महिलाओं की संसद-आपसी मैंहझर अब दिखाई सुनाई नहीं देते। गांव के रास्ते चपटे पत्थरों से चिने ‘चणाट’ कहलाते, चढ़ाई-उतराई के लिए कुआल़-कुआलि़यां हैं जिनकी चिनाई बनाबट देखते ही चकित करती हैं। बुजुर्ग ग्रामीणों के अनुसार ये सारे रास्ते, बत्त्तें व कुआल-कुआलियां लोगों ने जन सहयोग से बनाए थे जिनके दोनों ओर आम के वृक्ष और वट वृक्षों के तले अट्याल़े बने हैं। विकास के साथ ये चणाट, तारकोली सड़क में बदल रहे हैं। बनवाड़ियों, ढलानों, चरागाहों, चरानों, बावलियों, कुओं, नदियों के किनारे बतियाता, हंसता-खेलता ठिठोलियां करता लोकजीवन अब धीर-धीरे घर की चार दिवारी तक सीमित हो रहा है। गांव में पारस्परिक सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवहार से बनते रिश्ते समाप्त हो रहे हैं, अपनी भाषा पराई होती जा रही है और पराई भाषा से गांव भी प्रीत पा रहे हैं। सन् 1970 के बाद नल, टेलीफोन, टेलीविजन व यातायात के साधन बढ़ने से सारा गांव प्राकृतिक जीवन से बदलकर बनावटी जीवन की राहें तलाश करता दिखाई देता है।

               नेरटी गांव में ऐतिहासिक धरोहर के रूप में राजमन्दिर परिसर में स्थित ऐतिहासिक शिवमन्दिर एवं चम्बा नरेश राजसिंह स्मारक देहरी के अतिरिक्त मन्दिर के पश्चिम की ओर स्थित पहाड़ी पर गढ़माता मन्दिर के परिवेश में ध्वस्त गढ़ी के खण्डहर हैं जिससे उसकी ऐतिहासिक संरचना दृष्टिगोचर होती है। उसी के सामने पश्चिम दिशा में रामगढ़ के अवशेष तथा उत्तर में रेहलू किले की ध्वस्त दीवारें, मुख्यद्वार का मध्य भाग, खण्ड्हर बने निवास, शत्रुओं की निगरानी करते प्राचीरों में बने झरोखे व काल प्रवाह में भीतर का जंगलनुमा परिवेश, यहीं से पश्चिम की ओर क्यारी का किला और उत्तर दिशा में चम्बा भटियात में द्रमनाला के निकट की पहाड़ी पर पहरा देता लोहदर गढ़ यहां के इतिहास के अनेक पृष्ठ खोलते हैं। राजा राज सिंह के समय (सन 1764-1784) चम्बा राज्य की सीमाएं कांगड़ा रियासत के साथ लगती थी या उस राज्य के कई स्थानों पर उसका अधिकार रहा था। ‘पठियार का किला’ भी चम्बा राज्य के अधीन रहा था।

सामाजिक व धार्मिक परिवेश

               इस गांव में म्हाशों की घनी बस्ती है। पुश्तैनी बांस पात्र निर्माण कला कौशल से जीवन यापन करने वाले इन परिवारों से कुछ परिवार नगाड़ा-शहनाई वादन में भी लोकप्रिय रहे हैं। धन्नू म्हाशा अपने जमाने का सिद्धहस्त शहनाई वादक था। नए संवत के पारंम्परिक गायन करके ये परिवार ढोलरू गायन परम्परा का निर्वाह भी करते हैं। छुणको दम्पत्ति इस गायन कला में खासी पहचान रखते थे। उन्हें 15 ढोलरू स्मरण थे। कांगड़ा लोक साहित्य परिषद् (पंजी.) गैर-सरकारी संगठन ने इस बिरसा कला परम्परा को डाक्यूमैटेशन द्वारा सहेज कर रखा है।

               आज़ादी से पूर्व इस गांव में मिरासियों के भी छः परिवार थे। तीन परिवार कोल्हू चलाते। रमजान मुहम्मद और फकीर मुहम्मद अखिल भारतीय स्तर के सितार वादक व गायक थे। दूसरा परिवार गोसाईयों का था। इस परिवार के यज्ञवलक और रामकिशन सितार-तबला वादक और गायक थे। अपने समय में हरवल्लभ संगीत सम्मेलन में भाग लेते।

               बसोहली-जम्मू के कथावाचक संगीतज्ञ पंडित दीनानाथ अपनी पुत्री के पास इसी गांव में एक लम्बे समय तक रहे थे। वे कथावाचन के अतिरिक्त गायन व संगीत भी सिखाया करते थे। वर्ष 1928 से 1940 के मध्य इस क्षेत्र में संगीत, गायन, नाटक, रासलीला व रामलीला प्रदर्शन का माहौल रहा है। शाहपुर क्यारी के हरिजन पेटी मास्टर सालीराम, भवारना के शहनाईवादक व गायक लच्छो राम, मझैरना के शहनाई वादक व गायक तथा नगरी निवासी ढोलरू गायक, शहनाई वादक उन्हें अपना गुरु बताते थे।

               यहां दो परिवार नाई जातीय भी हैं जो गांवों में बरतेसरी परम्परा में ग्रामीणों के घर जाकर क्षौर कर्म परम्परा निभाते। इसके अतिरिक्त नाई-दंपत्ति की संस्कार कर्मो जन्म, जनेऊ विवाह में महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। पुरोहित्य के साथ नाई दो ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिन्हें छोटे-बड़े परिवारों में पर्दा प्रथा की अनुपालना नहीं होती। इसी परिवार के नाई दुनीचन्द हास्य व्यंग्य के कलाकार और ड्रामापार्टी में कलाकारों की मेकअप कला में कुशल थे। इनके पुत्र बंसीलाल कांगड़ा लोकसाहित्य परिषद् के महिला लोकनृत्यदल में नरसिंगा वादक थे और इसी कला कुशलता के कारण प्रदेश के पर्यटन विभाग द्वारा विश्व व्यापार मेला में झमाकड़ा लोक नृत्य दल के साथ पश्चिमी जर्मनी और इंग्लैण्ड भी गए।

               यहां की झीर (जलवाह) बस्ती में भी बिरसा कला की परम्परा थी। वे शरद ऋतु में चन्द्रौल़ी की महीना भर फेरी लगाते। वे दूर-दराज़ के गांवों में जाकर अपने हास्य-व्यंग्य भरे नृत्य-गायन द्वारा जन रंजन भी करते हैं और अपनी बिरसा परम्परा का निर्वाह भी करते। इनका स्वांग-प्रदर्शन व गायन बड़ा सरस तथा मनहर होता है, जिसमें हास्य व्यंग्य की चर्चा होती है। ये लोग अंचली गायन भी करते है।

               खेत-किसानी करने वाली जाति घिरथ भी एैंह्चली गायन परम्परा में बड़ी कुशल थी। ऐंचली गायन की परम्परा लड़की के विवाह के महीना पूर्व उसके घर में इस मण्डली द्वारा निभाई जाती है जो रात 9 बजे से प्रातः 3 बजे तक रहती है। इसमें पौराणिक कथावृत तथा पंजाबी किस्से चम्पू शैली में गाए सुनाए जाते। लच्छो धमेड़िया व राझूंझीर इस कला के सिद्धहस्त थे। वर्तमान में इसमें जगरूप उर्फ जग्गी लोकप्रिय है। कांगड़ा लोकसाहित्य परिषद् ने इस लोकगायन परम्परा को भी संगीत नाटक अकादमी दिल्ली के सहयोग से सहेजने का प्रयास किया है। घिरथ जाति में कृषक वर्ग की आबादी सबसे अधिक है। पूर्व काल में खेत-किसानी यही जाति किया करती थी। गांव के दो भागों में इनकी घनी बस्तियां हैं।

               हथरस की भगत मण्डलियों का आज़ादी से पूर्व पंजाब व जम्मू होते हुए कांगड़ा के इस जनपद में आना हुआ। उसी भगत परम्परा की स्वांग परम्परा को हरिजन वर्ग के लोगों द्वारा कुशलता से अनुकरण करके भगत लोकनाट्य परम्परा को स्थानीय रूप में विकसित किया। कालान्तर में इस स्वांग प्रदर्शन परम्परा में कृष्णलीला के सरस प्रसंग भी जुड़ गए। आज भी यह परम्परा इस गांव के आसपास प्रचलित है जिसे कांगड़ा लोकसाहित्य परिषद ने वर्ष 1974 के पश्चात् मंच प्रदान किया तथा उन्होंने राष्ट्र के अनेक प्रान्तों में इसका प्रदर्शन भी किया। इसी प्रकार परिषद् ने यहां के महिला लोकनृत्य झमाकड़ा को भी मंचीय रूप में संपादित कर लोकप्रिय बनाया। जिसे इसी गांव के ग्रामीण निष्पादन कला विकास मंच के माध्यम से इस लेख के लेखक ने वर्ष 1973 में संपादित किया तथा देश-विदेश तक इसका प्रदर्शन किया।

               लोकोपचारक वैद्य, चेले-जोगी, डलैह, मंत्र-तंत्री व उच्चाटन-सम्मोहन विद्या में भी यह गांव चर्चित रहा है। कृषक तथा सर्वहारा वर्ग में जख-नाग, वासियावाला, गुग्गा, लोक देवी-देवताओं में भी विश्वस्त है। यहां का लोक जिसके प्रमाण गुगमढ़ियां के रूप में विद्यमान हैं। कांगड़ा चित्रकला के पुश्तैनी चित्रकारों (चितरेरों) की छोटी सी बस्ती इस गांव की नदी चम्बी के पार तीन किलोमीटर की दूरी पर है। इसी गांव के निकटवर्ती गांव लदवाड़ा में पागल कुते के काटे विषग्रसित व्यक्ति को मन्त्रित जल पिलाकर स्वास्थ्य लाभ मिलता है। वर्तमान में पुरुषोत्तम चन्द, नौल़ जातीय घिरथ परिवार इस परम्परा का निर्वाह कर रहा है।

               यह गांव संस्कृत भाषा साहित्य एवं कर्मकाण्ड व ज्योतिष आदि की शिक्षण भूमि भी रहा है। पूर्व में रैत में सड़क के किनारे पक्की ईंटों की बनी एक विशाल धर्मशाला थी जिसमें स्वतन्त्रता से पूर्व संस्कृत पाठशाला दशकों तक रही। पंडित पद्मनाथ शास्त्री जी उसका संचालन करते थे। दूरस्थ स्थानों के जिज्ञासु छात्र अध्ययन के लिए यहां आया करते थे। उस काल में यहां संस्कार सूर्योदय पद्धतियों का लेखन भी होता था। यहां पंडितों, पुरोहितों व वैद्यों के घरों में सम्बन्धित विषयों की हस्तलिखित पुस्तकें व पाण्डुलिपियां भी उपलब्ध थीं। पंडित विद्यासागर, सरनदास दीक्षित व दौलतराम दीक्षित जाने-माने प्रसिद्ध वैद्य थे। उनके हस्तलिखित बदंग ग्रन्थ भी इन परिवारों में रहे हैं। इनके अतिरिक्त सरधा वैद भी वदंगी किया करते। यहां के पाक कला (रसोइये) में भी बड़े कुशल थे। यहां सीताराम थनीक का परिवार हलवाईयों का काम करता था। नत्थू हलवाई मिठाइयों के लिए मशहूर था। गोविन्द सुनारगिरी में बड़ा कुशल था। एक परिवार छीम्बों का है जिसके पूर्वज बूटा राम कपड़े छापने का काम करते थे। कबीरपंथी (जुलाह) परिवार कपड़ा-बुनाई का काम करते थे। गांव में हर घर की महिलाएं चरखा कातती थीं। शायद इसीलिए दहेज में चरखा अवश्य दिया जाता था। मशीन आने से पूर्व धान कुटाई का काम भी लोग हाथों से करते इसलिए हर आंगन में ऊखल दबे मिलते हैं। सन् 1960 तक इस गांव में स्थानीय नाटक मण्डली द्वारा तथा शाहपुर के कृष्णा ड्रामाटिक क्लब द्वारा रूप बसन्त, राजा हरिश्चन्द्र, प्रहलाद भगत् व अमर सिंह राठौर आदि ऐतिहासिक पौराणिक नाटक तथा रासलीला व रामलीला का मंचन होता था। रासलीला का मंचन तो महीना भर वृन्दावन से आए घुम्मकड़ रासघारिया मण्डली द्वारा होता था। वे रामलीला का मंचन भी करते थे। पूरा गांव श्रद्धाभक्ति से उनका आतिथ्य-सत्कार करता। स्थानीय निवासी ज्ञानचन्द शर्मा तो उनके रंग में ऐसे रंगे कि आयुभर इसी मंच को समर्पित रहे।

               गांव में सन् 1945 में हिन्दी तथा महिला शिक्षा प्रचारक स्वामी विजयशील आए। उन्होंने राज मन्दिर परिसर में चल रही पुत्री पाठशाला का संचालन संभाला। वे स्त्री शिक्षा प्रचारक थे। उन्होंने इस क्षेत्र में रहकर विभिन्न कस्बों में तेरह पुत्री पाठशालायें आरंभ की। इसी कारण सम्भवतयः, पंजाब के जिला कांगड़ा का यह पहला क्षेत्र था जहां महिला शिक्षा प्रसार अधिक रहा। यहां कन्या पाठशाला का आरम्भ 1943 में हुआ था जिसे सरनदास दीक्षित चलाते थे। वर्तमान राजकीय कन्या हाई स्कूल का प्रारंभिक भवन स्वामी विजयशील ने स्वयं ईटें थापकर खड़ा किया था जो 1954 में जिला कांगड़ा में पहला डिस्ट्रिक बोर्ड का बेसिक एलिमैंटरी कन्या मिडल स्कूल था।

               यहां विरसा कलाओं में काष्ठकला, सुनारगिरी, लुहारगिरी, प्रस्तर कला, मृदकला, चर्मकला आदि बिरसा भी निर्वाह करती हुई जातियां कलाओं का हैं जो परम्परा से अपनी कला कुशलता से बरतेसरी रीत में यहां के निवासियों की सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक आवश्यकताएं पूरा करतीं हैं। आधुनिकता के प्रभाव से इन विरसा कलावाहक जातियों की पारम्परिक व्यवस्थाएं बदल रही हैं, परन्तु आवासीय संरचना यथावत है।

               यहां के निवासियों ने आजाद हिन्द फौज में भी अपना योगदान दिया है जिनकी पीढ़ी के परिवारों को उसके आर्थिक तथा व्यावसायिक लाभ मिल रहे हैं। जल-थल-वायु सेना में भी यहां के लोग मेजर, कर्नल, सूबेदार, जमेदार आदि पदों से सेवानिवृत हुए हैं। मेजर प्रमोद सिंह पठानिया ने पैंशन आने के बाद गांव में सड़क तथा पानी की समस्या को हल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

               इस गांव में इन पंक्तियों के लेखक द्वारा वर्ष 1982 में सेवानिवृत प्राथमिक मुख्याध्यापक श्री लक्ष्मणदास मस्ताना के सहयोग से स्वामी विजयशील की स्मृति में आदर्श विद्यालय नेरटी की स्थापना कर उसका संचालन आरंभ किया। अंग्रेजी माध्यम का यह विद्यालय प्राथमिक स्तर से बारहवीं (विज्ञान) स्तर के रूप में वर्ष 2018 मार्च तक चलता रहा। इससे इस गांव तथा चौंतरफा 6-7 मील के दायरे के छात्रों को यहां शिक्षा पाने का अवसर मिला जो अनेक सरकारी-गैर सरकारी तथा सैन्य सेवाओं में अच्छे पदों पर कार्यरत हैं। अतः इस गांव में जो निजिस्तर पर शिक्षा प्रचार का विधिवत आरंभ वर्ष 1945 में स्वामी विजयशील द्वारा शुरू हुआ था उसकी परम्परा पुनः छत्तीस वर्ष तक निरन्तर रही।

गांव की ऐतिहासिकता

               सन् 1775 ई. में महाराजा संसार चन्द कांगड़ा राजगद्दी पर बैठा।1 उसने सन् 1786 में कांगड़ा दुर्ग पर अधिकार2 जमाकर राज्य विस्तार शुरू कर दिया। कांगड़ा रियासत के पुराने अधिकार के अनुसार ग्यारह पहाड़ी राज्य उसे नजराना दिया करते थे। उसने इस अधिकार को दोहराया और चम्बा के राजा से रेहलू के इलाके को छोड़ने को कहा। यह इलाका मुगल शासन काल में मुगलकारदारी के अधीन था। संसारचन्द ने किले से मुगलों को निकालने पर यह अधिकार जतलाया। राजसिंह ने इसे अस्वीकार कर दिया। परिणामस्वरूप दोनों राज्यों के मध्य कभी भी लड़ाई होने की आशंका बढ़ गई। राजसिंह ने रेहलू के किले को सुदृढ़ बनाया और उसमें फौज भी जमा की। इसी कारण कालान्तर में नेरटी में दोनों रियासतों के मध्य 20 जून 1794 ई. को युद्ध हुआ जिसमें चम्बा नरेश राजसिंह शत्रु सैनिक जीतसिंह पूर्विया द्वारा पीछे से बार करने पर शीश कट जाने पर भी लड़ते हुए युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त हुए।3 उनका दाह संस्कार रेहलू में खोहली खडड् के किनारे, किले के निकट राज्य परम्परानुसार किया गया।

               यद्यपि दोनों राजाओं के मध्य सन् 1788 में नादौन में मैत्री संधि हुई थी जिसका दस्तावेज राजसिंह ने स्वयं अपने हाथ से टांकरी लिपि में लिखा था जो आज भूरी सिंह संग्रहालय चम्बा में सुरक्षित हैं। इसमें अनुबंधित है कि दोनों राज्य मैत्री पूर्ण संबन्ध बनाए रखेंगे। एक दूसरे की सीमाओं का उल्लंघन नहीं करेंगे। अपनी सीमा पर एक ही अधिकारी को नियुक्त करेंगे। राजसिंह ने यह भी वचन दिया था कि वह कांगड़ा राज्य के अतिरिक्त किसी भी रियासत से मैत्री सम्बन्ध नहीं करेंगे।4

               नेरटी एक ऐतिहासिक गांव है। यहां 7 आषाढ़, 20 जून, 17945 के दिन चम्बा-कांगड़ा रियासतों के मध्य लड़ाई हुई जिसमें चम्बा नरेश राजसिंह शत्रुओं का संहार करते पीठ-पीछे से शत्रु सैनिक के वार करने से खोपड़ी उड़ जाने के कारण अढ़ाई घड़ी (एक घण्टा) लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुए थे। वे जिस शिला की आड़ लेकर लड़ रहे थे उसी पर ढेर हो गए। हिस्ट्री ऑफ पंजाब हिल स्टेटस तथा जिला गजेटियर में इस संम्बन्ध में लिखा है –   

“Raj Singh wiped away the blood, and then resting his hand on a large stone near which he was standing fell dead. The impression of blood is believed to be still visible on the stone.”6

               उनके शरीर पर अठारह घाव थे। राजसिंह की खोपड़ी लेकर भागते हुए कटोच सैनिकों को बनोई गज खड्ड की चढ़ाई पर तंग रास्ते में चम्बा के सैनिकों ने रोककर परास्त किया और खोपड़ी को छुड़ाकर ले आए। यह स्थान आज भी ‘‘घाटी’’ की संज्ञा से विख्यात है। राजसिंह के बलिदान दिवस को उनकी अन्तिम इच्छानुसार कांगड़ा-चम्बा मैत्री प्रतीक मेला के रूप में वर्ष 1799 से आज तक मनाया जा रहा है। यह मेला नेरटी, रैत व घाटी-सनौरा में हर वर्ष सात आषाढ़ को अर्थात् 20/21 जून को होता है। नेरटी का मेला ‘देहरे दा मेला’ तथा ‘राज्जे दा मेला’ गगल-सनौरां में ‘घाटिया दा मेला’’ संज्ञाओं से प्रचलित है।

               नेरटी गांव का यह ऐतिहासिक मेला रियासती काल में चम्बा नरेश की स्मृति में दो रियासतों के मध्य भाईचारे, मैत्री तथा तिजारती समझौते का प्रतीक बनकर 1799 से 1948 तक राज परिवार की सहायता व वार्षिक भोग से आयोजित होता रहा। उसके बाद चम्बा रियासत के सभी मन्दिर चम्बा स्थित श्री लक्ष्मी नारायण मन्दिर के संरक्षण में जाने पर, इस मेले को भी वार्षिक भोग के रूप में क्रमशः रु. 11/-, 21/-, 51/- आते रहे। सन् 1954 के पश्चात ‘मरूसी भूमि’ नियम के तहत श्री लक्ष्मी नारायण मन्दिर से आने वाली भोग राशि बन्द हो गई। इस आलेख के लेखक द्वारा किए प्रयासों से 1962 के पश्चात् रु. 101/- और अब रु. 200/- वार्षिक भोग राशि आती है। मन्दिर की नहरी भूमि मारूसी अधिनियम के तहत उसके काश्तकारी परिवारों को चली गई थी। अब मन्दिर की आर्थिक स्थिति दयनीय है। थोड़ी सी भूमि है जो काश्तकारों के पास है और वह इच्छानुसार फसल देते हैं। समय के साथ अनेक परम्पराएं अपने मूल स्थान से हटकर दूर-पार चली गई। इसी प्रकार यहां का विख्यात मेला भी 1960 के पश्चात् रैत कस्बा में राष्ट्रीय राजमार्ग के दायें-बायें ही लगने लगा। सन् 1974 में यहां स्थापित कांगड़ा लोकसाहित्य परिषद् (गैर सरकारी संगठन) द्वारा यहां साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होने लगा और इस धरोहर मेला को ‘परम्परा-उत्सव’ के रूप में मनाना शुरू किया। इससे इस स्थान तथा ऐतिहासिक मेले की परम्परा पुनः जीवित हुई। परिषद् के प्रयासों से वर्ष 2011 में यह गांव नेरटी हिमाचल प्रदेश सरकार की योजना के ‘हर गांव की कहानी’ के अन्तर्गत जिला का प्रथम गांव चयनित हुआ और पर्यटन मानचित्र पर उभरा।

ऐतिहासिक शिव मन्दिर नेरटी

               नेरटी गांव में स्थित ऐतिहासिक शिव मन्दिर शिखर शैली में बना है। यह भरमौर स्थित शिव मन्दिर के अनुरूप है परन्तु इस पर लकड़ी का छत्र नहीं है। इसकी ऊंचाई अनुमानतः 65 फुट है। गर्भगृह में सिंहासननुमा जलहरीपीठ के मध्य शिवलिंग स्थापित है जिसकी ऊंचाई 8 इंच है। जलहरी पीठासन को वृत्ताकार में प्रस्तर चित्रकला से सुसज्जित किया गया है जिसमें बेल-लताओं की नक्काशी है। मन्दिर के प्रवेशद्वार पर गणेश की मूर्ति है। उसके ऊपर त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश की मूर्तियां है जिनके लिए सजावटी चौखट प्रस्तर कला अलंकरण की कुशलता दर्शाती है। मन्दिर की परिक्रमा की दीवारों पर कलात्मकताक बने हैं। इनकी बनावट से प्रतीत होता है कि इनके भीतर कभी मूर्तियां रखी जाती होगी। मुख्य द्वार के सामने बनी देहरी के भीतर (शिवलिंग के सामने) स्मृति शिलाएं स्थापित हैं।

               शिव मन्दिर नेरटी का निर्माण चम्बा नरेश राजसिंह की अन्तिम इच्छानुसार उनके पुत्र राजा जीतसिंह (1794-1808) द्वारा संभवतया सन् 1796-1797 के मध्य करवाया गया। राजा राजसिंह के पिता राजा उमेदसिंह (1748-1764) का विवाह जसरोटा की राजकुमारी से हुआ था। उनका जन्म चम्बा से दूर राजनगर गांव में बनाए राजमहल में हुआ था। चम्बा के राजमहल में उत्तराधिकार सम्बन्धी षड्यन्त्र से बचाव के कारण राजसिंह 9 वर्ष की आयु में राजगद्दी पर बैठा। राज्य सिंहासन की दृष्टि से यह समय बड़े संकट और संघर्ष का था।7 राजसिंह का विवाह भद्रवाह के राजा सम्पतपाल की राजकुमारी से हुआ था। सन् 1775 में उनके बेटे जीत सिंह का जन्म हुआ था।

कला संरक्षक राजसिंह

               राजा राजसिंह एक वीर पुरुष होने के साथ कला-संरक्षक तथा कला प्रेम भी थे। विख्यात चित्रकला आलोचक एवं अध्येयता डॉ. विश्वचन्द्र ओहरी के मतानुसार – ‘राजसिंह के राज्यकाल में (1764-1794) उनके दरबार में कांगड़ा चित्रकला के विख्यात कलाकारों ने राज्याश्रय प्राप्त कर अद्भुत कलाकृतियों का सृजन किया था। चित्रकला समीक्षक एवं शोधकर्ताओं का मत है कि कांगड़ा चित्रकला का उद्भव और विकास गुलेर राज्य से हुआ है। गुलेर से ही चित्रकला का आलेखन शुरू हुआ। पंडित सेऊ का परिवार इसी राज्याश्रय में रहा था। उसके दो पुत्र माणक और नैनसुख अपने पिता के अनुरूप इस कला को सीखकर विकसित करते रहे। नैनसुख सन् 1740 के आसपास अपने छोटे बेटे राझां के साथ गुलेर से जसरोटा चले गए। कुछ समय बाद निक्का और रांझा चम्बा नरेश राजसिंह के यहां राज्याश्रय मिलने पर उनके आश्रित कलाकार बनकर चित्र बनाने लगे। संभवतयः इसी कारण इनके चित्रों और गुलेर में बने चित्रों में भिन्नता दिखाई देती है। राजसिंह और उनके पुत्र जीतसिंह के राज्यकाल में बने रुक्कमणी मंगल, सुदामाचरित आदि चित्रों का संग्रह भूरीसिंह संग्रहालय चम्बा तथा राजकीय संग्रहालय चण्डीगढ़ में संग्रहीत है, जो उनके वंशज मियां निहाल सिंह से अर्जित किए थे।8

               चित्रकार निक्का ने राजसिंह के शबीह चित्रों को भी अंकित किया है। उनके तीन पुत्र गोकल, छज्जू और हरखू राजा जीतसिंह के राज्यश्रय में रहे और चित्रांकन करते थे। सिक्खों के अभ्युदय के बाद वे सिख सामन्तों के लिए लाहौर में भी चित्रांकन करते रहे। राजसिंह द्वारा राज्याश्रित चित्रकारों को कांगड़ा के लदवाड़ा गांव के निकट गगल में जागीर (भूमि) भी मिली थी। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि सिख गवर्नर ने भी छज्जू को कांगड़ा क्षेत्र में जागीर के रूप में भूमि प्रदान की थी। डॉ. ओहरी ने भी अपनी पुस्तक में लिखा है कि राजा राजसिंह ने कांगड़ा के समीपवर्ती उपजाऊ क्षेत्र रेहलू में अपने राज्य की सीमा के अन्तर्गत गगल-रजोल (लदवाड़ा के निकट) में इस परिवार के मुखिया नैनसुख को जागीर दी थी। फलतः यहां रहते रांझा और निक्का चम्बा दरबार हेतु चित्र आलेखन करने लगे। चित्रकार रांझा मण्डी के राजा शमशेर सेन के राज्य में भी गए परन्तु उन्हें वहां कोई प्रोत्साहन नहीं मिला। अतः वह पुनः राजसिंह के लिए चित्रांकन करने लगा।

               रियासती राज्यों का राज्याश्रय समाप्त होने पर इसके वंशज चितरेरे कहलाए जाने लगे। वे अब आसपास के गांवों, कस्बों-नगरों में देहरा व द्वार लेखन आदि करके जीविकोपर्जन करने लगे। आजादी के बाद छठे दशक में डॉ. एम.एस. रंधावा ने इस कला परम्परा के प्रति रूचि दिखाते हुए इसकी खोज की। उन्होंने रियासती परिवारों से विरसा चित्रकला के बने चित्रों को प्राप्त करके उन्हें पुस्तकों में संपादित-प्रकाशित कर विश्व विख्यात बनाया। वर्ष 1966 में भाषाई आधार पर राज्यों का पुनगर्ठन होने पर तत्कालीन प्रदेश सरकार ने इस कला परम्परा के विरसा-घराने को तलाश कर पहचान दी और इसके वंशज चन्दू लाल रैणा को कांगड़ा कलम का गुरु मानकर उन्हें इस कला को सिखाने हेतु कांगड़ा आर्ट स्कूल की स्थापना नेरटी के रैत कस्बा में की। संप्रतिकाल में उनके पुत्र अनिल रैणा और शिष्य धनीराम खुशदिल तथा मुकेश कुमार आदि उन्हीं की शिष्य परम्परा के कलाकार चित्रकार हैं। नेरटी के निकटस्य गांवों कुठार, बजरेहढ़ व चितरेरी में भी इस चित्रकला परम्परा के परिवारों के निवास रहे हैं।

               राजा राजसिंह गुलेर के राजा प्रकाश चन्द (1777-1790) के समकालीन थे जिनकी रानी चम्बा से थे। अतः इन दोनों राज्यों के बीच पारस्परिक सांस्कृतिक संबन्ध थे। इसी कारण गुलेर के चित्रकारों ने चम्बा में राज्याश्रय प्राप्त कर कांगड़ा चित्रकला का विकास किया। गुलेर की रानी होने के प्रमाण गुलेर से लन्ज, तत्वानी, नेरटी-रैत, रेहलू मार्गों पर बनी अनेक खण्डहरनुमा खड़ी बावड़ियों के नाम उससे जुड़े हैं। रेहलू के निकट का गांव ‘रन्हेढ़’ तो रानी गुलेर के चम्बा जाते हुए एक रात्रि वहां विश्राम करने के कारण ही लोकप्रिय है। रैत के निकट ‘राणियां दी बां’ भी इसकी साक्षी है। राजसिंह के राज्यकाल में चम्बा रूमाल की हस्तकला को विशेष प्रश्रय और पहचान मिली। एक रूमाल जो सन् 1783 में बना है उसमें जीतसिंह अपनी राजमाता के साथ चित्रित हैं। रास और महारास की दसूती कढ़ाई वाले चम्बा रूमाल विश्वभर में ख्यात है। एक संदर्भ के अनुसार – The embroideries called chamba Rumals, which according to Goetz, is an application of Afghan-Persian embroidery technique to Rajput designs first appeared in the rule of Raj Singh. This art was an importation form “Kangra and Basoli.

               नेरटी गांव के राजपूत तथा ब्राह्मण परिवारों की महिलायें भी इस कला परम्परा में कुशल रही हैं। लड़कियों के दहेज में दसूती कढ़ाई के रूमाल, चादरें, सरहाने व बैठकू आदि देने की परम्परा रही है। राजसिंह की भवन निर्माण कला अभिरूचि का प्रमाण चम्बा का रंगमहल (राजमहल) कहा जाता है। इसका शिलान्यास इनके पिता राजा उमेदसिंह (1748-1764) ने किया था। राजसिंह ने अपने पिता के संकल्प तथा स्वप्न को साकार किया जो उनकी भवन कला, भित्ति चित्रांकन कला शैली आदि अभिरूचियों का प्रमाणिक दस्तावेज माना जाता है। इन्होंने अपने राज्यकाल में चम्बा नगर के शीर्ष स्थान पर बने चामुण्डा देवी मन्दिर का जीर्णोद्वार भी किया और वहां तक पहुंचने हेतु प्रस्तर सीढ़ियों का निर्माण भी कराया। इस मन्दिर में भित्ति चित्रकला के अद्भुत दृश्य देखने को मिलते हैं।

               उन्होंने चित्रकला को संरक्षण प्रदान किया। उन्हीं के राज्यकाल में कांगड़ा-चम्बा कलम के चित्रों का आलेखन हुआ। वस्त्र, कढ़ाईकला कौशल के उत्कृष्ट रूप ‘चम्बा-रूमाल’ की लोकप्रियता व प्रचार-प्रसार भी इन्हीं के समय हुआ। राजा राजसिंह एक साहसी योद्धा थे। वे चामुण्डा देवी के परमभक्त थे। इन्होंने चम्बा रियासत के विभिन्न स्थानों पर बने मन्दिरों को संरक्षण दिया और भूमि-जागीरें भी लगाई ताकि उनमें कार्यरत पुजारियों, सेवादारों को स्थायी जीविका मिले तथा मन्दिरों का संरक्षण हो सके।

संप्रतिकाल

               संप्रतिकाल में इस गांव में साहित्य सृजन-प्रकाशन की परम्परा वर्ष 1960 में इन पंक्तियों के लेखक द्वारा शुरू की गई। उसी परम्परा को इस गांव के रमेश मस्तान, दुर्गेश नन्दन, हरिकृष्ण मुरारी व डॉ. मीनाक्षी दत्ता अपनी सृजन धर्मिता से निरन्तर लोकप्रिय बना रहे हैं। गायन परम्परा में विक्रान्त भन्द्राल तथा साहिल पठानिया भी नाम कमाने लगे हैं। ये सभी प्रतिभाएं राजमन्दिर नेरटी के परिसर में कांगड़ा लोकसाहित्य परिषद की साहित्यिक तथा निष्पादन कलाओं के मंच के माध्यम से विकसित व लोकप्रिय हुई हैं। इसी परिसर में परिषद द्वारा स्थापित हिमालय लोकसंस्कृति-साहित्य अध्ययन पुस्तकालय की स्थापना की गई है। उसके लिए पुस्तकें तथा रख-रखाव के साधन डॉ. गौतम शर्मा व्यथित द्वारा उपलब्ध करवाए गए हैं जो ग्राम स्तर पर एक उधारणीय पहल कही जा सकती है। इसमें कांगड़ा-चम्बा जनपदीय लोककलाओं – परम्पराओं से सम्बन्धित वीडियो, सी.डी., डी.वी.डीज व दस्तावेजों का संग्रह भी सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण की दिशा में सराहनीय प्रयास हैं। इसमें नेरटी निवासी श्री रमेश चन्द शर्मा अपनी स्वैच्छिक सेवायें प्रदान कर रहे हैं। इस सेवा में श्रीमति स्वर्णलता, दुर्गेश नन्दन व डॉ. मीनाक्षी दत्ता का सहयोग भी उल्लेखनीय है।

मैं और मेरा गांव

               अन्त में मैं यह कहूं कि ऐतिहासिक गांव नेरटी मेरे साहित्य सृजन में सदैव मेरे साथ रहा है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मैं देश-विदेश में जहां भी गया हूं, मेरा गांव सदैव साए की तरह मेरे मानस में रहा है। यह कल्पना नहीं बल्कि सत्य है कि इसने मुझे बहुत कुछ दिया – पाला-पोसा, शिक्षित किया, बचपन के अभावों में कई अनुभव दिए, अनेकनामी वर्गीय किरदारों के साथ जीने व कार्य करने का अवसर दिया। यही अनुभव, किरदार मेरे लेखन में साथी बने। मेरी कहानियों, उपन्यास, गीत, कविता के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में पात्र बने, उनके कथानक होकर मुझे प्रेरित करते, लोकप्रियता, सम्मान व पुरस्कार प्रदान करते रहे। मेरे लिए मेरे गांव का इतिहास-परिचय की पृष्ठभूमि बना तो शिव मन्दिर उपासना-श्रद्धा का केन्द्र और इसके परिवेश की घटनाएं प्रेरणा बनी। मेरे गांव की नदी चम्पा (चम्बी) यहां की वनसम्पदा, प्राकृतिक मनोहरता, धौलाधार की हर मौसम में सुबह-सायं, दिन-रात, बदलती छवियां-दृश्यावलियां ही तो मेरे काव्यगीतों का उत्पाद्य व छन्द बनी। वन पाखियों की सुर-विविधता कलख ने स्वरसप्तक दिए, नदी के जलप्रवाह ने सरगमें, लोकजीवन ने विषय व किरदार दिए, लोकगायकों, लोकनाट्य मण्डलियों ने मेरे भीतर के नाटककार को प्रेरित किया और मुझे अपनी भाषा का संस्कार दिया। अब मेरा गांव इन्टरनेट तथा मीडिया से जुड़ा है तथा राष्ट्रस्तर के साहित्यकार, कलाकार व लोक कलाकार इसको स्पर्श करते रहे हैं। निश्चित रूप से मैं अपने गांव का सदैव ऋणी रहूंगा। इसने मुझे गांव स्तर से राष्ट्र स्तर तक पहचान और सम्मान-पुरस्कार प्राप्त करने के अवसर प्रदान किए हैं।

संदर्भ :

  1. J. Hutchinson and J.Ph. Vogal, History of the Punjab Hill state (Vol-I), Dept. of Languages and Culture Himachal Pradesh (1933), Reprint 1982, P. 317
  2. J Hutchinson and J.Ph. Vogal, History of Kangra and Kullu states, Northern book  centre New Delhi, (Reprint 1986), P. 59
  3. J. Hutchinson and J.Ph. Vogal, History of the Punjab Hill state (Vol-I), Dept. of Languages and Culture Himachal Pradesh (1933), Reprint 1982, P. 318    
  4. पुस्तक नं. 36. Acc. No. 08/70- 8, लिपि टांकरी, भाषा चम्बयाली (अभिलेख ज्येष्ठ मास के 25 प्रविष्टे संवत् 1845 तदानुसार सन् 1788 में नादौन से जारी किया गया।)
  5. J. Hutchinson and J.Ph. Vogal, History of the Punjab Hill state (Vol-I), Dept. of Languages and Culture Himachal Pradesh (1933), Reprint 1982, P. 318
  6. History of Punjab Hill states, Vol. 1, Page, 318
  7. History of Punjab Hill states, Vol. 1, Page, 314-318
  8. पहाड़ी चित्रकला के महान कलाकार, प्रकाशक हि.प्र. भाषा कला संस्कृति अकादमी शिमला, वर्ष 1998, पृ. 40

सेवानिवृत्त सह-आचार्य,

गांव व डाकघर – नेरटी,

तह. शाहपुर, जिला कांगड़ा (हि.प्र.)

पिन – 176208