पुस्तक समीक्षा

‘‘जलियांवाला बाग नरसंहार एक ऐतिहासिक विश्लेषण’’

डॉ. राघवेन्द्र यादव

(वर्ष 13, अंक 1-2) चैत्र-आषाढ़ मास कलियुगाब्द 5122 अप्रैल-जुलाई 2020

               औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों द्वारा भारत में चलाई जा रही दमनकारी नीतियों और क्रूर कार्यकलापों, घृणित मानसिकता से भारत की लूट खसोट आदि को समेटे हुए एवं अंग्रेजों द्वारा वर्ष 1919 में पंजाब के जलियांवाला बाग में किये नरसंहार को केन्द्रित करते हुए ‘‘जलियांवाला बाग नरसंहार एक ऐतिहासिक विश्लेषण’’ प्रकाशित ग्रन्थ उस नरसंहार के सौ वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में उन शहीदों को श्रद्धांजलि के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

               प्रस्तुत प्रकाशित ग्रन्थ 24 अलग-अलग घटनाओं का संकलन है जिसके प्रारंभ में डा. बालमुकुन्द पांडेय, राष्ट्रीय संगठन सचिव, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना, नई दिल्ली का पुस्तक के नाम सन्देश प्रेषित किया गया है। भूमिका के पश्चात पहले अध्याय में गदर आन्दोलन  के प्रभाव पर विस्तार से चर्चा की गयी है। इसके अंतर्गत भारतीय क्षेत्र के बाहर भी देश के प्रति सच्ची देशभक्ति रखने वालों की बात करते हुए यह कहा गया है कि उन जैसों की कमी न थी और वो देश को स्वतंत्र कराने के लिए लगातार प्रयत्नशील रहे। देश के बाहर भी अनेक पंजाबी ब्रिटिश सरकार की पक्षपातपूर्ण नीतियों से नाराज थे और उन्होंने भारत आने की इच्छा जाहिर की और इसके फलस्वरूप कनाडा, अमेरिका, फिलीपीन, हांगकांग तथा चीन से अनेक लोग भारत आये।

               दूसरे अध्याय में कामागाटामारू की घटना का विवरण किया गया है जिसमें कनाडा सरकार द्वारा 1908 ई. में एक कानून बनाकर कनाडा में भारतीयों का प्रवेश प्रतिबंधित किये जाने का विवरण है, साथ ही उससे उत्पन्न हुई समस्या के कारण भारतीय जहाज स्वदेश लौटे तो अंग्रेजी सरकार ने गोलियों से उनका स्वागत किया और 18 यात्रियों की मृत्यु और 202 यात्रियों को जेल में डाल देने का विवरण है।

               ग्रन्थ के तीसरे अध्याय में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान वस्तुओं के मूल्य तथा करों में वृद्धि का उल्लेख किया गया है। चौथे अध्याय में होमरूल आन्दोलन के प्रभाव का वर्णन किया गया है। इसमें लिखा गया है कि भले ही इन्हें पंजाब में प्रवेश न करने दिया गया हो किन्तु फिर भी इनका प्रभाव राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ पंजाब में भी पड़ा जो राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध हुआ।

               ग्रन्थ का पांचवा अध्याय अन्य अध्यायों से अधिक महत्वपूर्ण है। इसमें अंग्रेजों द्वारा बलपूर्वक सैनिकों की भर्ती पर जोर दिया गया है, इसमें व्याख्या की गयी है कि किन दुर्भावनाओं के साथ अंग्रेजो ने 1857 के प्रथम स्वतंत्राता संग्राम के बाद भारतीय सैनिकों को लड़ाकू और गैर लड़ाकू जातियों में बांटा और भारत के सभी क्षेत्रों से बलपूर्वक सैनिकों की भर्ती की। सेना के पैदल सैनिकों में इसी क्रोध के कारण अधिकांश भर्ती पंजाब राज्य से ही की गयी। युद्ध के बाद रौलेट एक्ट भारत में लागू किया गया। ग्रन्थ में लिखा गया है कि गाँधी जी ने इस दमनकारी रौलेट एक्ट के विरोध में भी अपने सत्याग्रह को अपनाने का ही फैसला किया और पूरे देश में इसका विरोध किया गया।

               इस ग्रन्थ का मूल केन्द्र पंजाब है इसलिए इसके पृष्ठ संख्या 30 में पंजाब में रौलेट एक्ट का विरोध और उसकी प्रतिक्रिया के रूप में हिंसक झड़प होने तथा वर्ष 1919 से पहले अमृतसर के राजनीतिक गतिविधियों का सक्रिय केन्द्र होने की जानकारी मिलती है। बड़े नेता के रूप में

डॉ. सत्यपाल का उभरना और फिर उनपर सरकारी प्रतिबंध एवं जन मानस द्वारा सरकारी कानूनों का लगातार उल्लंघन जैसी अनेक घटनाओं का उल्लेख इसमें किया गया है।

               ग्रन्थ का अध्याय दस तथ्यात्मक और विस्तृत होने के कारण अत्यधिक महत्वपूर्ण है जिसमें अंग्रेजी सरकार की अमानवीय घटना जलियांवाला बाग हत्याकांड का विस्तृत विश्लेषण किया गया है। इतिहास के अनेक अनछुए पहलू इसमें सामने आये हैं, अनेक शहीदों को इतिहास के पन्नो में स्थान देने का काम इस ग्रन्थ ने किया है। साथ ही अगले अध्याय में इस हत्याकांड में शहीद हुए वीरों की संख्या का अलग-अलग समितियों द्वारा अनुमान को प्रदर्शित किया है। ग्रन्थ के पृष्ठ क्रमांक 61 पर जलियांवाला नरसंहार होने के पश्चात भारतीयों की प्रतिक्रिया का विवरण किया गया है जो देश के बड़े-बड़े राजनेताओं से लेकर आम जनमानस के बीच की प्रतिक्रिया को दर्शाता है तथा पृष्ठ क्रमांक 77 पर अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के बीच राष्ट्रवाद की भावना को कुचलने व भय का वातावरण बनाने के उद्देश्य से अंग्रेजी गवर्नरों द्वारा मार्शल लॉ के प्रयोग व दुरुपयोग की जानकारी भी अंकित की गयी है।

               अंतिम अध्याय में जलियांवाला बाग स्मारक के निर्माण का इतिहास लिखा गया है, साथ ही परिशिष्ट में जलियांवाला बाग नरसंहार में शहीद हुए लोगों का नाम व परिचय दिया गया है और बाग में स्थित स्मारकों की फोटो भी लगाई गयी है जो इस ग्रन्थ के महत्व को बढ़ाती है।

               कई बार लेखक सत्य को छिपाकर इतिहास लेखन करता है जो पाठक को भ्रमित करती है। इतिहासकार प्रलोभन अथवा निजी महत्वाकांक्षा से वशीभूत होकर झूठ को परोसते हैं जिससे पढ़ने वाला सदियों तक गुमराह ही रहता है किन्तु विद्वान इतिहासकार प्रो. सतीश चन्द्र मित्तल व डॉ. प्रशांत गौरव ने ‘जलियांवाला बाग नरसंहारः एक ऐतिहासिक विश्लेषण’ में इस मिथक को तोड़ा है और पंजाब में घटित घटनाओं को देश के सम्मुख रखने का काम इस ग्रन्थ में सफलतापूर्वक किया है। इस ग्रन्थ को नवीनता विभिन्न ऐसी जानकारियों द्वारा दी गयी है।

               लेखकों ने जलियांवाला बाग नरसंहार को बड़ी ही सावधानी और सूझबूझ के साथ प्रस्तुत करने के साथ ही महत्त्वपूर्ण तथ्यों को एक पुस्तक के रूप में समाहित किया और भाषा सम्बन्धी गलतियों को नगण्य करने में सफल हुए। हमें पूर्ण विश्वास है कि इस ग्रन्थ को पढ़कर शोधकर्ताओं तथा विद्वानों को अंग्रेजों के इस क्रूर कृत्य और भारतीय विरोध एवं उस क्रम में हुए शहीदों को सही जानकारी मिलती रहेगी और लोग शहीदों को भविष्य में सम्मान के साथ याद करेंगे।

                               सहायक आचार्य, इतिहास विभाग

हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय,

सप्तसिन्धु पसिसर देहरा (हिमाचल प्रदेश)